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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
वे लिखते हैं कि योगसाधना की अपेक्षा से कायाधिष्ठित आत्मा तीन प्रकार की है - बाह्यात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।° बहिरात्मा की आसक्ति इन्द्रियों, देह एवं पर-पुद्गल के प्रति अटूट होती है। जब आत्मा का बाह्य आकर्षण टूट जाता है तब वह आत्मा स्व-स्वरूप की अनुभूति में निमग्न हो जाती है। शुद्धात्मा का अनुभव करती हुई अन्तरात्मा अन्त में परमात्मदशा को प्राप्त करती है।
२.४.१३ देवचन्द्रजी की कृतियों में त्रिविध आत्मा - जैनदर्शन आत्मवादी दर्शन है। जैनदर्शन के सम्पूर्ण सिद्धान्त आत्मा के धरातल पर स्थित हैं। अन्य भारतीय दर्शनों में भी आत्मा को परमतत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। साधक के जीवन का सारतत्त्व आत्मदर्शन ही है। उपाध्याय देवचन्द्रजी ने अपनी रचनाओं में आत्मा की इन त्रिविध अवस्थाओं की चर्चा की है - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।' त्रिविध आत्मा की अवधारणा प्राचीन है। देवचन्द्रजी के पूर्ववर्ती अनेक जैनाचार्यों द्वारा आत्मा की इन त्रिविध अवस्थाओं का गहन चिन्तन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगीन्दुदेव, शुभचन्द्राचार्य आदि के ग्रन्थों में भी त्रिविध आत्मा के सम्बन्ध में उल्लेख प्राप्त होते हैं। उपाध्याय देवचन्द्रजी के ग्रन्थों में भी त्रिविध अवधारणा का उल्लेख प्राप्त होता है। देवचन्द्रजी के अनुसार आत्मदर्शन के इच्छुक साधक का अनिवार्य कर्तव्य आत्मानुभूति है। साधक की जब तक अन्तर्दृष्टि जाग्रत नहीं होती तब तक वह बाह्य संसार में भटकता रहता है; अतः वह बहिरात्मा कहलाता है। इसलिए उन्होंने बहिरात्मा का त्याग करके अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मदशा को प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। परमात्मा राग-द्वेष से उपरत होकर समभाव में रहते हैं - आत्मदर्शन में लीन रहते हैं। वे परमात्मा निर्विकल्प, निर्लेप होकर
-योगवतार द्वात्रिंशिका ।
'बाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति च त्रयः ।
कायाधिष्ठायक ध्येयाः प्रसिद्धा योग वाङ्मये ।। १७ ।। " विचार रत्नसार प्रश्न १७८ ।
ध्यानदीपिका चतुष्पदी ४/८/१-२ ।
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