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________________ १४६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा जैनदर्शन के सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान अथवा मध्यम अन्तरात्मा के समकक्ष है। अर्चिष्मतीभूमि : साधक इस भूमि में क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का क्षय करता है। जैनपरम्परानुसार यह भूमि आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के समकक्ष है। जैसे आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में साधक ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों का रसघात, स्थितिघात और संक्रमण करता है वैसे ही इस अर्चिष्मतीभूमि में साधक क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का नाश करता है। इस भूमि में साधक वीर्य पारमिता के लिए प्रयत्नशील रहता है। यह भूमि भी मध्यम अन्तरात्मा की उच्चतम अवस्था मानी जा सकती है। सुदुर्जयाभूमि : साधक इस भूमि में सत्त्वपरिपाक या समग्र प्राणियों के धार्मिक भावों को परिपुष्ट करने के लिए और स्वचित्त अर्थात् स्वभावदशा का संरक्षण करते हुए दुःखों को जीतता है। यह कार्य अत्यन्त कठिन होता है। इसलिये इस भूमि को दुर्जयाभूमि कहा जाता है। इस भूमि में बोधिचित्त का उत्पाद् होने से भवापत्ति विषयक संक्लेशों से रक्षण हो जाता है अर्थात् भावी आयुष्यकर्म का बन्ध रुक जाता है। इस भूमि में साधक ध्यानपारमिता के लिए प्रयत्नशील रहता है। जैनदर्शन की अपेक्षा से सुदुर्जया नामक इस भूमि की तुलना क्षायिक श्रेणी के आठवें एवं नौवें गुणस्थान से की जा सकती है। जैनदर्शन और बौद्धदर्शन दोनों के अनुसार आध्यात्मिक विकास की यह अवस्था अत्यन्त कठिन होती है। त्रिविध आत्मा की अपेक्षा से यह भूमि उत्कृष्ट अन्तरात्मा की है। अभिमुखीभूमि : इस भूमि में बोधिसत्त्व प्रज्ञापारमिता के आश्रय से निर्वाण के प्रति अभिमुख होता है। यर्थाथ प्रज्ञा के उदय से साधक के लिए संसार और निर्वाण - दोनों में समभाव होता है। उसके लिए संसार का बन्ध नहीं होता है। बोधिसत्त्व या साधक के निर्वाण अभिमुख होने के कारण ही इस भूमि को अभिमुखीभूमि कहा जाता है। साधक इस भूमि में प्रज्ञापारमिता की साधना पूर्ण कर लेता है। चौथी, पांचवी और छठी भूमियों में अधिप्रज्ञा की शिक्षा होती है अर्थात् प्रज्ञापारमिता का अभ्यास होता है। साधक इस भूमि में उसकी पूर्णता को उपलब्ध कर लेता है। इस अभिमुखीभूमि की (७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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