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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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भी कहा जा सकता है। इस भूमि में बोधिसत्त्व साधक दानपरिमिता का प्रयत्न करता है। यह जघन्य अन्तरात्मा की
भूमिका है। (२) प्रमुदिताभूमि : इस भूमि में अधिशील शिक्षा प्राप्त होती है।
इस भूमि में शीलविशुद्धि का प्रयास किया जाता है। प्रमुदिता भूमिवाला साधक (बोधिसत्त्व) लोकमंगल की साधना में संलग्न रहता है। इसे बोधिप्रस्थानचित्त की दशा भी माना जा सकता है। बोधिप्रणिधिचित्त मार्ग का ज्ञान है और बोधिप्रस्थानचित्त मार्ग में गमनागमन की क्रिया है। इस भूमि की तुलना जैनदर्शन के देशविरत पंचम गुणस्थान और छठे सर्वविरत गुणस्थान से की जा सकती है। इस भूमि में यह ज्ञान होता है कि प्रत्येक कर्म के फल का भोग अनिवार्य है, कर्म तो अपना फल दिये बिना नष्ट नहीं होता है। इस भूमि में बोधिसत्त्व शीलपारमिता का पालन करता हुआ, अपने शील को अत्यन्त विशुद्ध बनाता है। इस भूमि के पश्चात् साधक विमलाविहारभूमि में प्रवेश करता है। त्रिविध आत्मा की अवधारणा की दृष्टि से तुलना करने पर इसे भी जघन्य अन्तरात्मा की भूमिका माना जा सकता है। विमलाभूमि : इस भूमि में बोधिसत्त्व के जीवन में असंयम एवं प्रमाद का अभाव होता है; क्योंकि इस विमला नामक भूमि में दुःखशीलता के मनोविकार सम्पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं - दुर्विचार और दुर्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। यह भूमि आचार शुद्धि की दशा है। साधक इस भूमि में शान्ति और पारमिता की प्राप्ति हेतु प्रयासरत रहता है। यह अधिचित्त शिक्षा है। विमलाभूमि में ध्यान और समाधि का लाभ होता है। जैन परम्परानुसार इस विमलाभूमि की तुलना सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से की जा सकती है। यह मध्यम
अन्तरात्मा की भूमिका है। (४) प्रभाकरीभूमि : इस भूमिवाले साधक को समाधिबल के प्रभाव
से अपरिमित धर्मों का साक्षात्कार हो जाता है। बोधिसत्त्व (साधक) लोकमंगल के लिए बोधिपक्षीय धर्मों का परिणमन संसार में करता है। दूसरे शब्दों में बुद्ध का ज्ञानरूपी प्रकाश लोक में प्रसारित करता है। इसी कारण इस भूमि को प्रभाकरी नाम से सम्बोधित किया जाता है। यह भूमि भी
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