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________________ विषय प्रवेश ११५ की कृति, अनुयोगद्वार की परिशिष्ट गाथाओं तथा परवर्ती कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में मिलती है। डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का विकास इसी गुणश्रेणी के सिद्धान्त से हुआ है। गुण श्रेणियाँ दस हैं : (१) सम्यग्दृष्टि; (२) श्रावक; (३) विरति; (४) अनन्त वियोजक; (५) दर्शनमोहक्षपक; (६) उपशमक; (७) उपशान्तमोह; (८) क्षपक; (E) क्षीणमोह; और (१०) जिन। ये दस गुणश्रेणियाँ व्यक्ति के क्रमिक आध्यात्मिक विकास की सूचक हैं। इनमें भी प्रथम नौ गुणश्रेणियाँ अन्तरात्मा की और दसवीं गुणश्रेणी परमात्मा की सूचक है। गुणश्रेणियों की इस चर्चा में बहिरात्मा का कोई उल्लेख नहीं है। इन पर विस्तृत विवेचना अग्रिम षष्ठ अध्याय में की गई है। (ग) गुणस्थान : जैनदर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण गुणस्थान सिद्धान्त के आधार पर ही किया जाता है। व्यक्ति के बन्धन या आध्यात्मिक पतन के मुख्य कारण कर्म माने गये हैं। व्यक्ति कर्म के आवरण से जितना-जितना मुक्त होता है, उतना ही उसका आध्यात्मिक विकास होता है। गुणस्थान का सिद्धान्त भी कर्मविशुद्धि के आधार पर व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की चर्चा करता है। इनकी निम्न चौदह अवस्थाएँ मानी गई हैं : (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान; (३) मिश्र गुणस्थान; (५) देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान; (७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान; (६) अनिवृत्तिबादर गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान; (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान; और (२) सास्वादन गुणस्थान; (४) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान; (६) प्रमत्त संयत गुणस्थान; (८) अपूर्वकरण गुणस्थान; (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान; (१२) क्षीणमोह गुणस्थान; (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान। ४६५ ५ षट्खण्डागम ४, १, ६६ (अनुयोगद्वार परिशिष्ट) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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