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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
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"जीवो उवओगमओ, अमुत्ति कत्ता सदेहरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो, सो विस्ससो ऽगई ।।" अर्थात् जीव उपयोगयुक्त, अमूर्तिक, कर्त्ता, भोक्ता, स्वदेह परिणामवाला और स्वभावतः ऊर्ध्वगामी है । उसके संसारी और सिद्ध ऐसे दो भेद हैं I
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जैनदर्शन में जीव को ज्ञानमय एवं चैतन्य स्वीकार किया गया है । इन्हीं विशिष्ट लक्षणों के कारण जीव जड़ पदार्थो से भिन्न माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र एवं कर्मास्रव २२ में जीव के दो भेद किये गये हैं : “संसारिणो मुक्ताश्च”
२६१
अर्थात् १. सिद्ध और २. संसारी ।
सिद्धजीव
जो जीवात्माएँ आठ कर्मों से मुक्त होकर सम्यक्त्वादि गुणों से युक्त होकर लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाती हैं जिनका पुनः संसार में आगमन नहीं है, वे सिद्धात्माएँ हैं । वे सिद्ध परमात्मा अक्षय, अव्याबाध, सुखानुभूति में लीन रहते हैं
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संसारीजीव
जो जीवात्माएँ अपने कृत कर्मानुसार संसार में परिभ्रमण करती हुई कर्मों का फल भोगने के लिए विभिन्न योनियों में जन्म-मरण करती हैं अर्थात् ४ गति एवं २४ दण्डक और ८४ लाख योनियों में परिभ्रमण करती हैं वे संसारी हैं । ये संसारीजीव ६ प्रकार के हैं । जैनदर्शन में षट्जीवनिकाय का विशिष्ट स्थान रहा है । इसकी चर्चा हमें प्राचीनतम जैन आगमिक ग्रन्थों में उपलब्ध होती है । प्राचीन आगमिक परम्परा में
जैसे
आचारांगसूत्र २९३
,
२६० बृहद्रव्यसंग्रह २ |
२६१
२६२ ' संसारिणो मुक्ताश्च' |
२६३
-
'संसारत्थाय सिद्धाय, दुविहा जीवा वियाहिया' ।
(क) आचारांगसूत्र प्रथम अध्ययन;
( ख ) ऋषिभाषित २५ / २ ।
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- उत्तराध्ययनसूत्र अ. ३६/४८ । -तत्त्वार्थसूत्र २/१० ।
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