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विषय प्रवेश
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प्राप्ति के लिए चारों बाधक तत्त्वों से मुक्त होकर साधक मोक्ष-तत्त्व की प्राप्ति करता है। मोक्ष की साधना करने वाला साधक पुण्य, पाप, बन्ध और आस्रव इन चारों से बचकर संवर और निर्जरा की साधना से मोक्ष तत्त्व तक पहुँचता है। उत्तराध्ययनसूत्र में नवतत्त्वों का विवरण निम्न प्रकार से उपलब्ध है -
“जीवजीवा य बन्धो य, पुण्णं पावासवो तह।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव।।"२८४ अर्थात् जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा और मोक्ष - ये नवतत्त्व हैं। दिगम्बर ग्रन्थों में सात तत्त्व मिलते हैं। कर्मासव२८५ में भी सात तत्त्व स्वीकार किये गए हैं। उसमें पुण्य
और पाप का आस्रव में समावेश किया गया है। इन नवतत्त्वों में जीव और अजीव मुख्य तत्त्व हैं। इनका वर्णन उतराध्ययनसूत्र२८६ के ३६वें एवं स्थानांगसूत्र२८७ के द्वितीय अध्याय में है। इन दोनो में भी जीव ही मुख्य है, अजीव तो जीव के बन्धन का निमित्त है।
इस प्रकार इन नवतत्त्वों के विवेचन में जीवतत्त्व अर्थात् आत्मा का प्रथम स्थान है। उत्तराध्ययनसूत्र में जीव का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि : “जीवो उवओगलक्खणं"
अर्थात् उपयोग (चेतना) जीव का लक्षण है।८८
प्रवचनसार में जीव को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास - इन चार प्राणों के द्वारा जो जीया था, जो जीता है और जो जीयेगा वही जीव है।२८६ प्रवचनसार की जीव की यह व्याख्या संसारीजीवों पर ही घटित होती है; क्योंकि मुक्त जीव तो इन चार प्राणों से युक्त नहीं हैं। बृहद्रव्यसंग्रह की दूसरी गाथा में जीव के निम्न लक्षण बताये गये हैं -
२८४ उत्तराध्ययनसूत्र २८/१४ । २८५ तत्त्वार्थसूत्र १/४ । २८६ उत्तराध्ययनसूत्र अध्याय ३६/१-२४८ । २८७ स्थानांगसूत्र २/१ ।
उत्तराध्ययनसूत्र २८/१४ । २८६ 'पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं ।
सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदब्वेहिं णिवत्ता ।। १४७ ।।'
-प्रवचनसार ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन ।
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