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________________ पुरुदेव चम्पूप्रबन्ध लाभान्वित हुए थे । ये आशाधर निस्सन्देह वे ही सागार व अनगार धर्मामृत आदि अनेक ग्रन्थोंके रचयिता हैं जो शहाबुद्दीन बादशाह के अत्याचारोंसे त्रस्त हो अपनी जन्मभूमि मांडलगढ़ ( सपादलक्ष, राजस्थान ) को छोड़ मालवाकी धारा नगरी और अन्ततः नलकच्छ नामक ग्राम में वि. सं. १२५० के लगभग जा बसे थे । उनके उल्लेख से प्रस्तुत ग्रन्थकर्ताकी यहाँ पूर्व कालावधि तो सिद्ध हो जाती है, किन्तु इससे कितने काल पश्चात् वे हुए इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि उन्होंने यह कहीं नहीं कहा कि वे आशाधरके साक्षात् शिष्य थे । अर्हद्दासकी रचनायें हमें चम्पूकाव्यके उच्चतम विकासका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है । कविने स्वयं अपनी रचनाको "चञ्चत्कोमल - चारु- शब्द -निचयैः पत्रः प्रकामोज्ज्वला" अर्थात् 'लहराते हुए कोमल और सुन्दर शब्दावलिरूपी पत्रोंसे नितान्त उज्ज्वल' कहा है जो उसके अवलोकनसे यथार्थ प्रतीत होता है । पुरुदेव चम्पूका मूलपाठ आजसे लगभग पचास वर्षों पूर्व माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला ( क्र. २७ ) में प्रकाशित हुआ था । इस ग्रन्थमाला के संस्थापक सम्पादक स्वर्गीय पं. नाथूराम प्रेमीने अपना यह ध्येय बनाया था कि अप्रकाशित, अन्धकारमें पड़े हुए संस्कृत - प्राकृत ग्रन्थोंको कमसे कम मूलरूप में अवश्य प्रकाशित करा दिया जाये । और इस प्रकार उन्होंने सैकड़ों अज्ञात छोटी-बड़ी रचनाओं को प्रकाशमें लानेका असाधारण श्रेय प्राप्त किया । प्रस्तुत रचनाका सम्पादन उसी प्रकाशन के आधारसे हुआ है । एक अन्य हस्तलिखित प्रतिसे भी पाठान्तर लिये गये हैं । इस काव्यका विषय प्रथम जैन तीर्थंकर वृषभनाथ, आदिनाथ या पुरुदेवका चरित्र है । इसकी विशेषता यह है कि जैन साहित्यके अतिरिक्त वैदिक साहित्य में भी इसका कुछ विवरण मिलता है । वेदों में ऋषियोंसे भिन्न ऐसे मुनियोंके व उनकी साधनाओंके उल्लेख मिलते हैं जो नग्न रहते थे, अतः जिन्हें 'वातरशन' कहा गया है। महापुराणानुसार वातरशन दिगम्बरका पर्यायवाची है । यही नहीं अनेक वैदिक पुराणोंमें तो वृषभका चरित्र भी वर्णित पाया जाता है । और वह मुख्य बातों में जैन मान्यतासे मेल भी खाता है । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वेदोंमें जहाँ भी वृषभ अथवा अन्य कोई समान शब्द आवे उसे जैन तीर्थंकरका नामवाची ही मान लिया जाये । वृषभका अर्थ बैल भी होता है और विशेषणरूप से श्रेष्ठ के अर्थ में उसका प्रयोग प्राचीनतम वेद रचनाओंसे लेकर आज तक पाया जाता है । अतः प्रसंगपर भलीभाँति विचार कर जब तक अपने अभीष्ट अर्थकी अच्छी तरह पुष्टि न हो जाये तब तक उसे वैसा माननेकी शीघ्रता नहीं करना चाहिए । अपुष्ट कल्पनासे न केवल उस स्थलके वास्तविक ज्ञानका अभाव तथा लेखकका पूर्वाग्रह सिद्ध होता है, किन्तु जहाँ उसकी सार्थकता है उसके विषय में भी विद्वानोंकी उपेक्षा-दृष्टि बन जाती है । पुरुदेव चम्पू एक उत्कृष्ट संस्कृत काव्य है । चरित्र नायक आदिनाथका जीवन भी बड़ा ही रोचक और उपदेशप्रद है । अपनी पद्य रचनामें यह ग्रन्थ भारवि और माघ, तथा गद्यमें सुबन्धु और बाकी कृतियोंसे तुलनीय और प्रभावित है । समासों की प्रचुरता व श्लेषादि अलंकारोंकी बहुलता के कारण उसके रस और भावका माधुर्य सहज हाथ नहीं लगता । इस कठिनाईको दूर करने हेतु अनुभवी व सिद्धहस्त विद्वान् पं. पन्नालालजी साहित्याचार्यने उसपर सुबोध संस्कृत टीका भी लिखी और हिन्दी अनुवाद भी किया । इसके लिए वे हमारे तथा समस्त संस्कृत - प्रेमियोंके धन्यवाद के पात्र हैं। बड़ा कठिन होता ऐसी रचनाओंको उक्त सामग्री सहित प्रकाशमें लाना, यदि ज्ञानपीठके संस्थापक व संचालक इस कार्य में विशेष उदार दृष्टि न रखते तथा धर्मकी गरिमाको अर्थसे अधिक महत्त्वशाली न समझते । इस हेतु हम श्री शान्तिप्रसादजी, उनकी पत्नी रमाजी तथा ज्ञानपीठके मन्त्री लक्ष्मीचन्द्रजी का बड़ा आभार मानते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only ही. ला. जैन आ. ने. उपाध्ये www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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