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प्रधान सम्पादकीय
संस्कृत रचनाओंकी अनेक शैलियाँ और विधाएँ हैं, जैसे काव्य, नाटक, चरित, पुराण, कथा, आख्यायिका, स्तोत्र, गीत तथा मुक्तक आदि। इन सबका तीन वर्गों में विभाजन किया जाता है, गद्य, पद्य और मिश्र। मिश्र रचना-शैली प्राचीनतम ब्राह्मणोंमें पायी जाती है। उदाहरणार्थ, ऐतरेय ब्राह्मणकी शुनःशेप कथा गद्यमें रचित होनेपर भी उसमें एक सौसे अधिक पद्यात्मक गाथाएँ आयी हैं। इस शैलीका प्रयोग पालि भाषाकी जातक कथाओंमें और पश्चात् पंचतन्त्र, हितोपदेश जैसी रचनाओंमें बहुलतासे हुआ। नाटकमें भी गद्य और पद्य दोनोंका प्रयोग हुआ। किन्तु यहाँ गद्य और पद्यका अपना-अपना विशिष्ट स्थान बन गया। यहाँ कथात्मक या वार्तालाप भाग गद्यमें और उसका सार अथवा उपदेशात्मक, भावात्मक या रसात्मक अंश पद्यमें रचे गये जिससे कि वे सरलतापूर्वक स्मरण रखे जा सकें एवं सभा-गोष्ठी आदिमें अपनी बातकी पुष्टिके लिए सुभाषित रूपसे सुनाये जा सकें। इन्हें जो जितना स्मरण रख सके वह उतना ही सभाचातुर विद्वान् माना जाने लगा।
किन्तु जब पद्य व गद्य रचनाओंमें कलात्मकताकी मात्रा बढ़ी, तब उनके उक्त प्रकार क्षेत्रोंका बँटवारा नियत न रह सका। अश्वघोष और कालिदाससे प्रारम्भ होकर भारवि, माघ और श्रीहर्ष तक महाकाव्य शैलीने अर्थ-गाम्भीर्यके साथ छन्द, रस, भाव, अलंकार आदिमें अति कृत्रिम रूपसे विकास किया । गद्य रचना भी पीछे न रही और सुबन्धु तथा बाणने उसे भी इतना पुष्ट और कलात्मक बना दिया कि उसे भी महाकाव्यके समकक्ष स्थान प्राप्त हो गया। उक्त प्रसिद्ध कृतियोंके रचयिताओंका कौशल दोमें-से किसी एक ही क्षेत्रमें पाया जाता है. पद्य या गद्य ।
स्वाभाविक था ऐसी प्रतिभाओंका भी उदित होना जो एक ही कृतिमें अपने गद्य और पद्य दोनों प्रकारके रचना-कौशलकी अभिव्यक्ति करना चाहें। ऐसी रचनाएँ चम्पूके रूपमें सम्मुख आयीं। इनका नाम चम्पू क्यों पड़ा यह अभी तक एक रहस्य ही है । संस्कृत धातुओं और व्याकरणसे इस नामकी कोई व्युत्पत्ति समझमें नहीं आती। चम्पूकाव्य-कर्ताओंने भी उसे नहीं समझाया। बहुत सम्भव है यह आर्यभाषाका शब्द न होकर द्राविड़ भाषा का हो ?
सबसे प्रथम दण्डीने अपने काव्यादर्शमें चम्पूकी परिभाषा की “गद्य-पद्यमयी काचित् चम्पूरित्यभिधीयते” अर्थात् “ऐसी कोई विशेष रचना जो गद्य और पद्यमय हो चम्पू कहलाती है"। यह सातवीं शतीके लगभगकी परिभाषा है। किन्तु जो चम्पू रचनाएँ उपलभ्य हैं वे दशवीं शतीसे पूर्वकी कोई नहीं हैं। सर्वप्रथम रचना त्रिविक्रम भटकी नलचम्प और दूसरी सोमदेवसरिकी यशस्तिलकचम्प है। वे दोनों ही कवि दशवीं शतीके पूर्वार्धमें हुए । प्रथम कृतिके विषयमें डॉ. कीथका मत है कि उसका पद्य साधारण कोटि का है ( His verses are no more than mediocre ) किन्तु उनके मतानुसार द्वितीय कृति सुरुचि और सद्बुद्धिपूर्ण है ( He is a poet ot taste and good sense ) । अन्य क्षेत्रोंके अनुसार इस साहित्यिक शाखाका भी जैन कवियोंने अच्छा विकास किया जिसका कुछ विवरण इस ग्रन्थकी प्रस्तावनामें किया गया है। इस शृंखलामें अन्तिम रचना है अहहास कृत प्रस्तत परुदेवचम्प ।
दशवों शतीकी उक्त दो रचनाओंसे प्रारम्भ होकर चम्पकाव्योंकी बडी बाढ आयी और आगामी सात-आठ शतियोंमें दो सौसे भी अधिक चम्पू रचे गये। ( डॉ. छविनाथ त्रिपाठीने अपनी 'चम्पूकाव्यका आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन' नामक कृतिमें २४५ चम्पूकाव्योंकी सूची दी है )। अति आधुनिक चम्पुओंमें उल्लेखनीय है शंकर-चेतो-विलासचम्पू जिसमें शंकर नामक कविने उन महाराज चेतसिंहको अपना नायक बनाया है जो लार्ड वारन हेस्टिग्स सम्बन्धी इतिहासमें प्रसिद्ध हुए।
चम्पूकाव्यके इस आठ सौ वर्षके इतिहासमें प्रस्तुत रचना पुरुदेवचम्पूका स्थान मध्यमें अर्थात् १३-१४वीं शतीके लगभग आता है। यहाँ तथा अपनी अन्य दो रचनाओं 'मुनिसुव्रत काव्य' तथा 'भव्यकण्ठाभरण' में कर्ता अर्हद्दासने अपने विषयमें इतना ही कहा है कि वे आशाधरसूरिकी रचनाओंसे बहुत
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