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________________ कवेः प्रशस्तिपद्यम् मिथ्यात्वपङ्ककलुषे मम मानसेऽस्मि न्नाशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने । उल्लासितेन शरदा पुरुदेवभक्त्या तच्चम्पुदम्भजलजेन समुज्जजृम्भे ॥१॥ भयं पुरुदेवचम्पूप्रन्थः समाप्तः । मिथ्यात्वेति-मिथ्यात्वमेव पङ्कस्तेन कलुषे मलिने आशाधरोक्तय एव कतकास्तेषां प्रसरास्तैः प्रसन्ने निर्मलीकृते ममार्हद्दासस्य अस्मिन् मानसे मानसाख्यसरोवरे पुरुदेवभक्त्या शरदा शरदृतुना उल्लासितेन प्रहर्षितेन तच्चम्पुदम्भजलजेन पुरुदेवचम्पुनामकमलेन समुज्जजम्भे ववृधे । कर्मणि प्रयोगः। वसन्ततिलकच्छन्दः ॥१॥ १० मिथ्यात्वेति-जो पहले मिथ्यात्वरूपी पंकसे मलिन था तथा पीछे चलकर आशाधर जी के सुभाषितरूपी कतकफलके प्रभावसे निर्मल हो गया था ऐसे मेरे इस मानस-मनरूपी मानसरोवरमें पुरुदेव-वृषभ जिनेन्द्रकी भक्तिरूपी शरऋतुके द्वारा उल्लासको प्राप्त हुआ यह पुरुदेवचम्पू रूपी कमल वृद्धिको प्राप्त हुआ है॥१॥ यह पुरुदेवचम्पूग्रन्थ समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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