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________________ ३७२ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [ १०६६८६६८ ) व्यपास्य चिन्तां गुरुशोकजातां गणेशमानम्य विनम्रमौलिः।। ___ निन्दन्नपारां निजभोगतृष्णां चक्री विभूत्या स्वपुरं विवेश ।।४।। ६ ६९ ) अथ कदाचन चक्रधरः करकलितमणिदर्पणबिम्बितं शरच्चन्द्रबिम्बविडम्बकं पलितनिजवदनबिम्बं पुरुपरमेश्वरसंनिधानादागतमिव दूतमवलोक्य विगलितमोहरसः साम्राज्यं जरत्तृणमिव मन्यमानो निजात्मजमर्क कीर्ति राजलक्ष्म्या संयोज्य महितापवर्गद्वारप्रतिमं संयम स्वीकुर्वाणः सद्यः समुत्पन्नेन मनःपर्ययबोधेन केवलज्ञानेन च विदितसर्वपदार्थसार्थः पुरंदरादिवृन्दारकसंदोहवन्द्यमानपादारविन्दस्तत्र तत्र भव्यसस्येषु धर्मामृतवृष्टिं व्यातन्वानश्चिरं विहृत्य परमं पदमाससाद । $ ७० ) वृषभसेनमुखा गणिनस्तथा सकलजन्तुषु सख्यमुपागताः । विमलशीलविशोभितमानसाः परमनिर्वृतिमापुरिमे क्रमात् ।।४।। १५ पितृवियोग एव हुताशनोऽग्निस्तेन दीपितं कृततापं भरतराज वचनामृतैः वचनपीयूषैः उपशमं शान्ति नयति स्म प्रापयति स्म । द्रुतविलम्बितछन्दः ॥४७॥ ६६८) व्यपास्येति-चक्री भरतः गुरुशोकजातां पितृशोक. समुत्पन्नां चिन्तां दुःखपूर्णविचारसंतति व्यपास्य त्यक्त्वा विनम्रमौलिनतमस्तकः सन् गणेशं वृषभसेनगणधरं आनम्य नमस्कृत्य अपारामत्यधिकां निजभोगतृष्णां स्वकीयभोगस्पृहां निन्दन् विभूत्या समृद्धया स्वपुरं स्वनगरं विवेश। अयोध्यानगरं प्रत्यागतवानिति भावः ॥४८॥६९ ) अथेति-सुगमम । ६७.) वृषभसेनेतितथा तेनैव प्रकारेण सकलजन्तुषु निखिलप्राणिषु सख्यं मैत्रीभावम् उपागताः प्राप्ताः विमलशीलेन विशोभितं मानसं येषां तथाभूताः इमे एते वृषभसेनमुखा वृषभसेनप्रभृतयो गणधराः क्रमात् क्रमेण स्वायुःक्षयानुसार २० गणधरने पिताके वियोगरूपी अग्निसे दुःखी भरतराजको वचनरूपी अमृतसे शान्ति प्राप्त करायी ॥४७।। ६६८) व्यपास्येति-तदनन्तर पिताके शोकसे उत्पन्न चिन्ताको दूर कर विनम्र. मस्तक हो गणधरको नमस्कार कर अपनी बहुत भारी भोग सम्बन्धी तृष्णाकी निन्दा करता हुआ चक्रवर्ती भरत, वैभवके साथ अपने नगरमें प्रविष्ट हुआ ॥४८॥ ६६९) अथेति तदनन्तर किसी समय चक्रवर्तीने अपने हाथ में स्थित मणिमय दर्पणमें प्रतिबिम्बित होनेवाले, २५ शरद्ऋतु सम्बन्धी चन्द्रमाके बिम्बकी विडम्बना करनेवाले एवं भगवान् आदि जिनेन्द्रके पाससे आये हुए इनके समान जान पड़नेवाले अपने सफेद बालोंसे युक्त मुख बिम्बको देखा, देखते ही उनके मोहका विपाक दूर हो गया, वे साम्राज्यको जीर्णतृणके समान मानने लगे। फलतः वे अपने पुत्र अर्ककीर्तिको राजलक्ष्मीसे युक्त कर उत्कृष्ट मोक्षके द्वारके समान संयम को स्वीकृत करते हुए शीघ्न ही उत्पन्न हुए मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानसे समस्त पदार्थों के ३० समूहको जानने लगे, इन्द्र आदि देवोंके समूह उनके चरण-कमलोंकी वन्दना करने लगे। इस प्रकार भव्य जीवरूपी धान्योंमें धर्मामृतकी वर्षा करते हुए चिर काल तक विहार कर उन्होंने परमपद-मोक्षको प्राप्त किया । ६७०) वृषभसेनेति-इसी प्रकार जो समस्त जीवोंमें मैत्रीभावको प्राप्त हुए थे, तथा जिनके हृदय निर्मल शीलसे सुशोभित थे ऐसे ये वृषभसेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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