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दशमः स्तबकः
६४ ) स्फीताग्नीन्द्रति रीटको टिमणिसंजाताग्निना चन्दनश्रीकर्पूरलवङ्गकुङ्कुमघृतक्षीरैः स्फुरद्वह्निना ।
गन्धाद्यचित कुण्डजेन जगतः सौगन्ध्यसंदायिना
भर्तुर्देहृमदीपयत्कुतुकतः सोऽयं दिवौकोगणः ।।४५।।
$६५ ) एवं सुरभिकुसुमगन्धाक्षतादिभिरभ्यर्चित भगवद्दिव्यदेह होमकुण्ड दक्षिणभागे गणवरशरीरसंस्कार हुतवहकुण्डं तदपरदिग्भागे चानगारकेवलिहुताशकुण्डं परिकल्प्य गार्हपत्यदक्षिणाग्न्याहवनीयाभिधानात्कुण्डत्रयादुद्धृतभस्मना ललाट कण्ठभुजशिखरयुगलहृदयप्रदेशेषु वयमपि पञ्चकल्याणभागिनो भवामेति विरचितरेखाः सकललेखाः सहर्षमानन्दनाटकं संभूय संपाद्य
स्वभवनमभजन्त ।
$ ६६ ) संध्यात्रये पावनरूपमेतदग्नित्रयं सादरमर्चयन्तः । गृहस्थपूजाविधयो भवेतेत्युपासकान् धीरमुवाच चक्री ||४६ || $६७ ) गुरुवियोग हुताशनदीपितं भरतराजमुदारगिरां वरः । वृषभसेनगणी वचनामृतैरुपशमं नयति स्म महागुणः ||४७ ||
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छन्दः ॥४४|| $ ६४ ) स्फोतेति - सोऽयं स एष दिवौकसां देवानां गणः चन्दनश्री कर्पूरलवङ्गकुङ्कुमघृत क्षीरैः मलयजघनसार देवकुसुमकेशराज्यदुग्धः स्फुरन्ती वृद्धिर्यस्य तेन गन्धाद्यचित कुण्डजेन गन्धप्रभूतिपूजितकुण्डोत्पन्नेन १५ जगतो भुवनस्य सौगन्ध्यं संददातीत्येवंशीलेन सौगन्ध्यसंदायिना स्फीतानां देदीप्यमानामग्नीन्द्राणामग्निकुमारसुरेन्द्राणां तिरोटानि मुकुटानि तेषां कोटिषु मणयो रत्नानि तेभ्यः संजातः समुत्पन्नो योऽग्निस्तेन कुतुकतः कौतूहलात् भर्तुः वृषभजिनराजस्य देहं शरीरम् अदीपयत् भस्मसाच्चकार । शार्दूलविक्रीडित छन्दः ॥४५ ॥ $६५ ) श्वमिति - सुगमम् - । ६६ ) संध्यात्रय इति – सुगमम् ||४६ ।। ९६७ ) गुरुवियोगेति — उदार - गिरां उदारा गोर्येषां तेषां श्रेष्ठवक्तॄणां वरः श्रेष्ठः महागुणो महागुणयुक्तः वृषभसेनगणी तन्नामगणधरः गुरुवियोग: २०
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करते हैं || ४४ || $६४ ) स्फीति - देवोंके इस समूहने, चन्दन, कपूर, लवंग, केशर, घी तथा दूधसे जिसकी वृद्धि हो रही थी, जो गन्ध आदिसे पूजित कुण्ड में उत्पन्न हुई थी और समग्र संसार के लिए जो सुगन्ध प्रदान कर रही थी ऐसी देदीप्यमान अग्नीन्द्रकुमार देवोंके मुकुटा सम्बन्धी मणियोंसे उत्पन्न होनेवाली अग्निके द्वारा भगवान् के शरीर को कुतूहलपूर्वक भस्म किया । $६५ ) एवमिति - इस तरह सुगन्धित पुष्प-गन्ध तथा अक्षत आदिके २५ द्वारा पूजित भगवान् के दिव्य शरीर सम्बन्धी होम कुण्डके दक्षिण भागमें गणधर के शरीर सम्बन्धी संस्कारका अग्निकुण्ड और उसके पश्चिम दिग्भागमें अनगार केवलियोंके अग्निकुण्ड की रचना कर उनके क्रमशः गार्हपत्य, दाक्षिणाग्न्य और आहवनीय इस प्रकार नाम रखे, उक्त नामोंवाले उन तीनों कुण्डोंसे निकाली हुई भस्मके द्वारा जिन्होंने ललाट, कण्ठ, दोनों कन्धे और हृदय प्रदेश में, हम भी पंच कल्याणकके भागी होवें इस भावनासे जिन्होंने रेखाएँ बनायी थीं ऐसे वे समस्त देव हर्षसे एकत्रित हो तथा 'आनन्द नाटक कर अपने-अपने घर गये । $ ६६ ) संध्येति - चक्रवर्ती भरतने धीरतापूर्वक श्रावकोंसे कहा कि आप लोग प्रातः, मध्याह्न और सायं इस प्रकारकी तीनों सन्ध्याओं में पवित्र रूपवाली इन तीनों अग्नियोंकी आदर सहित पूजा करते हुए गृहस्थ सम्बन्धी पूजाको विधि करनेवाले होवें ॥४६॥ ९६७) गुरु वियोगेति - - उत्कृष्ट वचन बोलनेवालों में श्रेष्ठ तथा महागुणोंसे युक्त वृषभसेन ३५
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