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________________ -१३] नवमः स्तबकः ३२९ सकलमपि महीतलं चतुरङ्गमयम्, अशेषदिङमण्डलं रजोमयं, नभःस्थलं च दिविजविद्याधरमयम्, अन्तरीक्षं चातपत्रमयं, समीरकुलं च मदगन्धमयं, भुवनोदरं च जयजीवेत्यादिघोषमयं चाविरास । $१२ ) ततः सैन्यः साकं विततपथमुल्लङ्घय भरत क्षितीशः सोऽद्राक्षीत्पुलिनजघनां पद्मनयनाम् । मुदा गङ्गां सद्यस्तनकमलकोशां धनरस स्फुरद्रूपां वेणीकलितघनपुष्पां सुरुचिराम् ।।८।। $ १३ ) व्यापारितदृशं तत्र विलोक्य पृथिवीपतिम् । स्फारधीर्वाचमित्यूचे सारथिश्चित्तरञ्जनम् ।।९।। १० निखिलमपि महीतलं भूतलं चतुरङ्गमयं चतुरङ्गसैन्यमयं, अशेषदिङमण्डलं निखिलाशाचक्रवालं रजोमयं धूलिमयं, नभःस्थलं च गगनस्थलं च दिविजविद्याधरमयं देवखेचरमयम्, अन्तरीक्षं गगनम् आतपत्रमयं छत्रमयं, समीरकूलं वायुकूलं च मदगन्धमयं गजमदगन्धमयं, भवनोदरं च जगन्मध्यं च जयजोवेत्यादिघोषमयं च आविरास प्रकटोबभूव । १२) तत इति-ततस्तदनन्तरं सैन्यैः पृतनाभिः साकं विततपथं उल्लङ्घय स भरतक्षितीशो भरतनरेन्द्रो मुदा हर्षेण गङ्गां गङ्गानदी विशेषणसाम्यात् कांचित् कामिनी च अद्राक्षीत् अवलोकयामास । उभयोः सादृश्यमाह-तत्र गङ्गापक्षे पुलिनं जघनमिव नितम्बमिव यस्यास्तां पक्षे पलिनमिव जघनं यस्यास्तां, पद्मानि नयनानीव यस्यास्तां पक्षे पद्म इव नयने यस्यास्तां, सद्यस्तनास्तत्कालभवाः कमलकोशाः कमलकुडमलानि यस्यास्तां पक्षे सद्य:स्तनी कमलकोशाविव यस्यास्तां, धनरसेन प्रभूतजलेन स्फुरत् रूपं यस्यास्तां पक्षे घनरसेन निविडशृङ्गारादिरसेन स्फुरद्रूपं यस्यास्तां, वेण्या प्रवाहे कलितं धृतं घनपुष्पं जलं यया तां पक्षे वेण्योः कवर्योः कलितानि धृतानि घनपुष्पाणि अधिककुसुमानि यया तां, सुरुचिरा सुन्दरीम् उभयत्र समानाम् । श्लेषोपमा। शिखरिणीछन्दः ॥८॥ ३) व्यापारितेतितत्र गङ्गायां व्यापारिते दृशो येन तं तथाभूतं पृथिवीपतिं भरतेश्वरम् अवलोक्य स्फारधीविशालबुद्धिः सारथिः २० वाले मार्गमें देदीप्यमान तथा अग्रसर चक्ररत्नके अनुसार पूर्व दिशाकी ओर चलने लगी, तब समस्त पृथिवीतल चतुरंगसेनामय, समस्त दिशाओंका मण्डल धूलिमय, आकाश देव और विद्याधरमय, आकाश छत्रमय, वायुका समूह मदकी सुगन्धमय और जगत्का मध्यभाग जय जीव आदि शब्दोंसे तन्मय हो गया। १२) तत इतितदनन्तर राजा भरतने सेनाओंके साथ लम्बा मार्ग पार कर बड़े हर्षपूर्वक उस गंगा नदीको . देखा जो कि स्त्रीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्री पुलिनके समान नितम्बोंसे सहित होती है उसी प्रकार गंगा नदी भी नितम्बोंके समान पुलिनों-दोनों तटोंसे सहित थी, जिस प्रकार स्त्री कमलोंके समान नेत्रोंसे सहित होती है उसी प्रकार गंगा नदी भी नेत्रोंके समान कमलोंसे सहित थी, जिस प्रकार स्त्री कमल-कुडमलोंके समान उठते हुए स्तनोंसे सहित होती है उसी प्रकार गंगा नदी भी तत्काल उत्पन्न कमल-कुड़मलोंसे सहित थी, जिस प्रकार स्त्रीका रूप शृंगारादि रसों से सुशोभित होता है उसी प्रकार गंगा नदीका आकार भी अत्यधिक जलसे शोभायमान था, जिस प्रकार स्त्री चोटीमें गँथे हए अत्यधिक पुष्पोंसे सहित होती है उसी प्रकार गंगा नदी भो प्रवाह युक्त जलसे सहित थी और जिस प्रकार स्त्री अत्यन्त रुचिर-सुन्दर होती है उसी प्रकार गंगा नदी भी अत्यन्त रुचिररुचिवर्धक थी ।।८।। ६१३) व्यापारितेति-जिसके नेत्र गंगापर पड़ रहे थे ऐसे भरतेश्वरको देख विशाल बुद्धिका धारक सारथि, मनोरंजन करता हुआ इस प्रकारके वचन बोला ॥९॥ ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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