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________________ ३२२ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [ ९६४वियत्तलपतत्सितच्छदपरम्पराकण्ठिका शशाङ्कविलसन्मुखी शरदराजताम्भोजदृक् ॥३॥ $४ ) तदानीं विकचकञ्जपुकिंजल्कपिञ्जरया कनककलितमणिबद्धशरल्लक्ष्मीकण्ठिकयेव, मदमत्तमदनगजसंत्रुटितसुवर्णशृङ्खलयेव, मधुकरपरम्परया विराजमाने, मनसिजमद५ गजमदवारिसौरभशङ्काकरसप्तच्छदपरिमलपरिमिलितदिगन्तरे, गगनतललक्ष्मीवक्षःस्थलविलसित हरिन्मणिकण्ठिकानुकारिणीभिः, निरावरणं प्रकाशमानं विकर्तनं निजपितरमुपसेवितुमागतायाः तथाभूता शरद् कामिनीपक्षे विशालो बृहदाकारी विमलाम्बरे स्वच्छवस्त्रे स्फुटौ प्रकटौ यो पयोधरौ स्तनो तयोरुद्यन्ति मरुच्छरासनानीव इन्द्रधनूंषीव नखक्षतानि नखराघाता यस्यास्तथाभूता, मधुकरालिर्धमरपङ्क्ति लालका इव यस्यां सा शरद् कामिनीपक्षे मधुकरालिरिव नीलालकाः श्यामलकचा यस्याः सा, वियसले गगनतले पतन्तः समुड्डीयमाना ये सितच्छदा हंसास्तेषां परम्परा संततिः कण्ठिकेव ग्रीवाभरणमिव यस्यां तथाभूता शरद् कामिनीपक्षे वियत्तलपतत्सितच्छदपरम्परेव कण्ठिका यस्याः सा, शशाङ्कश्चन्द्रो विलसन्मुखमिव यस्यां तथाभूता शरद् कामिनीपक्षे शशाङ्क इव विलसन्मुखं शोभमानवदनं यस्याः सा, अम्भोजदक् अम्भोजानि कमलानि दृश इव नेत्राणि यस्यास्तथाभूता शरद् कामिनीपक्षे अम्भोजे इव दृशौ नयने यस्याः सा। श्लेषरूपकोपमाः । पृथ्वीछन्दः ॥३॥६४) तदानीमिति-तदानीं तस्मिन् काले, विकचानि विकसि१५ तानि यानि कजानि कमलानि तेषां पुञ्जस्य समूहस्य किजल्केन केसरेण पिजरा पीतवर्णा तया कनक कलिता स्वर्णनिर्मिता मणिबद्धा रत्नखचिता च या शरल्लक्ष्म्याः कण्ठिका ग्रीवाभरणं तयेव, मदमत्तमदनगजेन संत्रुटिता खण्डिता सुवर्णशृङ्खलयेव हाटकहिजीरिकयेव, मधुकरपरम्परया भ्रमरसंतत्या विराजमाने शोभमाने, मनसिजमदगजस्य कामोन्मत्तकरिणो मदवारिणो दानसलिलस्य यत् सौरभं सौगन्ध्यं तस्य शङ्काकराः ये सप्तच्छदाः सप्तपर्ण वृक्षास्तेषां परिमलेन विमर्दोत्थगन्धेन परिमिलितानि व्याप्तानि दिगन्तराणि यस्मिस्तस्मिन, गगनतललक्षम्या नभस्तलश्रिया वक्षःस्थले विलसिताः शोभिता या हरिमणिकण्ठिकास्तासामनुकारिणीभिः, निरावरणं यथा स्यात्तथा प्रकाशमानं विभ्राजमानं विकर्तनं मार्तण्डं "विकर्तनार्कमार्तण्डद्वादशात्मदिवाकराः' इत्यमरः, निजपितरं स्वजनकम् उपसेवितुं समीपमागत्य सेवितुम् आगतायाः समायातायाः २० नखक्षत सुशोभित होते हैं उसी प्रकार उस शरद् ऋतुके विशाल तथा निर्मल आकाशमें प्रकट मेघों के ऊपर नखक्षतके समान इन्द्रधनुष सुशोभित हो रहा था, जिस प्रकार स्त्रीके भ्रमरा२५ वलिके समान काले-काले केश होते हैं उसी प्रकार शरद् ऋतुके भी काले केशोंके समान भ्रमरावलि सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार स्त्रीके कण्ठमें आकाशतलमें उड़ते हुए हंसों की सन्ततिके समान कंठी सुशोभित होती है उसी प्रकार शरद् ऋतुके भी कण्ठीके समान आकाशतल में हंसों की पंक्ति उड़ रही थी, जिस प्रकार स्त्रीका चन्द्रमाके समान मुख सुशोभित होता है उसी प्रकार शरद् ऋतुके भी मुखके समान चन्द्रमा सुशोभित हो रहा था और जिस प्रकार स्त्री कमलों के समान नेत्रों से सहित होती है उसी प्रकार शरद् ऋतु भी नेत्रों के समान कमलों से सहित थी ॥३॥ $४) तदानीमिति-उस समय वह शरद् ऋतु भ्रमरों की जिस परम्परासे सुशोभित हो रही थी वह खिले हुए कमल समूहकी केशरसे पीली-पीली हो रही थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वर्णनिर्मित एवं मणियों से जड़ी शरद् ऋतुकी लक्ष्मीकी कण्ठी ही हो अथवा मदसे मत्त कामदेवरूपी हाथीके द्वारा ३५ तोड़ी हुई सुवर्णकी सांकल ही हो। उस समय दिशाओ के अन्तराल कामरूपी मदोन्मत्त हाथीके मद जल सम्बन्धी सुगन्धिकी शंका करनेवाले सप्तपर्णकी सुगन्धिसे मिल रहे थे। उस समय आकाश शुको की जिन पंक्तियों से व्याप्त हो रहा था वे ऐसी जान पड़ती थीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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