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________________ ३१२ पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध [ १५८रुपशोभमानं, जिनचन्द्रोदयवर्धमानपयोधिध्वनिमनुकुर्वता सुरदुन्दुभिनिध्वानेन प्रकटितमहिमानं, भव्यजनसप्तभवावलोकनमणिमुकुरायमाणेनान्तरारातिचक्रनिराकरणनिपुणचक्रायुधायमानेन ज्ञानश्रीमणिदर्पणायमानेन यद्वा धवलातपत्ररूपेण भगवतः सेवां विधाय कृतकृत्यतामापन्नं चन्द्रमवलोक्य स्वयमपि सेवार्थमागतेनेव प्रभाकरेण भामण्डलेन वाभास्यमानदिव्यदेहं, मृदुमधुरगम्भीर५ सर्वभाषामयदिव्यध्वनिदिनकरेण भव्यजनमनोदुर्गध्वान्तं विध्वंसयन्तं मूर्तेनेव ज्ञानदर्शनचरित्रत्रित येनान्येन वदनत्रयेण परिशोभमानं तं देवदेवमवलोक्य विस्मयविस्तृताक्षाः सहस्राक्षप्रमुखसुराध्यक्षा भक्त्या प्रणम्यार्चयित्वा चैवं स्तोतुमारभन्त । ईश्वराद् भगवतः उत्पतद्भिरुद्गच्छद्भिः यशोविसरैरिव कीर्तिसमूहरिव, यक्ष करसरोजवीज्यमान चामरैरुप शोभमानं, जिन एव चन्द्रो जिनचन्द्रस्तस्य उदय एवाभ्युदय एव उदय उद्गमस्तेन वर्धमानो यः पयोधि: १० सागरस्तस्य ध्वनि शब्दं अनुकुर्वता विडम्बयता सुरदुन्दुभिनिध्यानेन देवदुन्दुभिनिनादेन प्रकटितो महिमा यस्य तम्, भामण्डलेन द्युतिवलयन भामण्डलाभिधानप्रातिहार्येणेत्यर्थः बाभास्यमानः शोशुभ्यमानो दिव्यदेहो यस्य तं, अथ कथंभूतेन भामण्डलेनेत्याह-भव्यजनानां भव्यजीवानां सप्तभवानां सप्तपर्यायाणामवलोकनं दर्शनं तस्मै मणिमुकुरायमाणेन रत्नादर्शवदाचरता, आन्तरारातीनामभ्यन्तरशत्रणां चक्रः समूहस्तस्य निराकरणे तिरस्करणे निपुणं दक्षं यत् चक्रायुधं चक्राभिधानशस्त्रं तद्वदाचरता, ज्ञानश्रिया ज्ञानलक्ष्म्या मणिदर्पणायमानेन १५ रत्नमकुरन्दायमानेन यद्वा धवलातपत्ररूपेण धवलच्छत्राकारेण भगवतः सेवा विधाय कृत्वा कृतकृत्यता कृतार्थताम् आपन्नं प्राप्तं चन्द्र शशिनम् अवलोक्य स्वयमपि स्वतोऽपि सेवार्थ शुश्रुषार्थ आगतेन प्रभाकरेणेव सर्येणेव भामण्डलेन बाभास्यमानदिव्यदेहं. मदः मधरो गंभीरः सर्वभाषामयश्च यो दिव्यध्वनिः स एव दिनकरः सूर्यस्तेन भव्यजनमनोदुर्गाणां भव्यजनहृदयकान्ताराणां ध्वान्तं अज्ञानतिमिरं विध्वंसयन्तं नाशयन्तं, मूर्तेन साकारेण ज्ञानदर्शनचारित्रत्रितयेनेव सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयेणेव, अन्येन निजमुखातिरिक्तेन वदनत्रयेण मुख२० त्रयेण परिशोभमानं तं देवदेवं वृषभजिनेन्द्रम् अवलोक्य दृष्ट्वा विस्मयेन विस्तृतानि अक्षीणि येषां तथाभूताः सेवाके लिए आये हुए अमृतके पूर ही हों, अथवा यह भगवान् समस्त देवोंके द्वारा सेव्यमान पादों-चरणों ( पक्ष में प्रत्यन्त पर्वतों) से युक्त होनेके कारण हिमालय-हिमवान् पर्वत हैं ( पक्ष में निश्चयसे लक्ष्मोक्रे घर हैं ) ऐसा मानकर उनके पास आनेवाली गंगाकी लहरें ही हों, अथवा देव समूहके मुखरूपी कमलोंसे सुशोभित भगवान्के दिव्य शरीरकी कान्तिके २५ पूरमें सरोवरकी शंका होनेसे आते हुए मानो हंस ही हों, अथवा भगवानसे ऊपरकी ओर उठते हुए उनके यशके समह ही हों। जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमाके उदयसे बढ़ते हुए समुद्रकी ध्वनिका अनुकरण करनेवाले देवदुन्दुभियोंके शब्दसे उन भगवान्की महिमा प्रकट हो रही थी। उस भामण्डलके द्वारा उनका दिव्य शरीर सुशोभित हो रहा था जो भव्य जीवोंके सात भव देखनेके लिए मणिमय दर्पणके समान आचरण करता था, जो अन्तरंग शत्रुओंके समूहका निराकरण करनेवाले चक्रायुधके समान जान पड़ता था, जो ज्ञानरूपी लक्ष्मीके मणिमय दर्पणके समान मालूम होता था अथवा धवलछत्रत्रयके रूपमें भगवानकी सेवा कर कृतकृत्यताको प्राप्त हुए चन्द्रमाको देखकर स्वयं सेवाके लिए आया हुआ मानो सूर्य ही हो। वे भगवान् कोमल, मधुर,गम्भीर, और सर्वभाषा रूप परिणत होनेवाली दिव्यध्वनिरूपी सूर्य के द्वारा भव्य जीवोंके मनरूपी अटवीके अन्धकारको नष्ट कर रहे थे, तथा वे मूर्तिधारी ज्ञान, ३५ दर्शन और चारित्रके त्रिकके समान अपने तीन अन्य मुखोंसे सुशोभित हो रहे थे अर्थात् वे चतुर्मुख दिखाई देते थे। देवाधिदेव उन वृषभ जिनेन्द्र के दर्शन कर जिनके नेत्र आश्चर्यसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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