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________________ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [८६५८ कुतुकेनामहमिकया स्वयमनुपतन्त्येव पुष्पवृष्टया शोभमानं, देवस्य चिन्तानिष्कासितेन रागेणेवोपगूढस्य मरकतहरितदलविलसितमदकलमधुरविरुतमधुकरनिचयमुखरितमणिमयकुसुमविततकिसलयकुलविलसितस्य रक्ताशोकतरोमूलमुपाश्रितं, भुवनत्रयाधिपत्यं प्रकटीकुर्वाणेन, हासेनेव त्रिज गल्लक्षम्याः, यशोमण्डलेनेव भगवतः, स्मितोल्लासेनेव धर्मनृपस्य, सेवार्थमुपागतेनेव चन्द्रबिम्बेनायं ५ किल विमुक्ताम्बरस्त्यक्तचञ्चलानन्दः सदामरालीसंतोषकरो विचित्रबलाहको धीरसस्यवृद्धि करोतीति कुतूहलेन संद्रष्टुमुपागत्य विस्मयवशात्तत्रैव निश्चलतामुपगतेनेव शारदनीरदत्रयेण, चन्द्रे प्रतितया च पक्षे सन् चासावारामश्चेति सदारामः समोधोनोपवनं तस्मिन् अनुरक्ततया च मे पुष्पस्य बन्धनस्थितिः कर्मबन्धस्थिति: पक्षे मालारूपेण बन्धस्थितिः आसीत् भगवतो वृषभजिनेन्द्रस्य सेवोन्मुख्यमात्रेण सेवायामुन्मुख्यं सेवोन्मुख्यं सेवोन्मुख्यमेव सेवोन्मुख्यमानं तेन सेवातत्परत्वेनैव बन्धो मुक्तः कर्मबन्धः स्रस्तः पक्षे मालाबन्धो मुक्त इतीत्थं कुतुकेन कुतूहलेन अहमहमिकया अहं पूर्वमहपूर्वमिति भावेन स्वयं स्वतः अनृपतन्त्येव अनुगच्छन्त्येव पुष्पवृष्टया सुमनोवर्षया शोभमानं, देवस्य भगवतः चित्तात् निष्कासितेन दूरीकृतेन रागेणेवोपगूढस्य रागेण प्रेम्णा पक्षे लोहितवर्णेन उपगूढस्येव समालिङ्गितस्येव मरकतहरितदलैः मरकतमणिमयहरितपत्रविलसितः शोभितः, मदकलं मधुरं च विरुतं विरावो येषां तथाभूता ये मधुकरा भ्रमरा स्तेषां निचयेन मुखरितो वाचालितः, मणिमयैः कुसुमैः पुष्पैविततो व्याप्तः, किसलयकुलेन पल्लवप्रचयेन १५ विलसितश्च शोभितश्चेति तथाभूतस्य रक्ताशोकतरोः लोहितकडूलिवृक्षस्य मूलं उपाश्रित प्राप्तम् अशोक तरोरधस्तात् सिंहासनासोनमित्यर्थः धवलातपत्रत्रितयेन शुक्लच्छत्रत्रयेण विशोभमानं विराजमानम्, कथंभूतेन धवलातपत्रत्रितयेनेत्याह-भुवनत्रयाधिपत्यं लोकत्रयाधीश्वरत्वं प्रकटीकुर्वाणेन प्रकटयता, त्रिजगल्लक्षम्याः त्रिभुवन श्रियाः हासेनेव हसितेनेव, भगवतो जिनेन्द्रस्य यशोमण्डलेनेव कीर्तिपुजेनेव, धर्मनृपस्य धर्माधिराजस्य स्मितोल्लासेनेव मन्दहास्यविलासेनेव, सेवार्य शुश्रूषार्थम् उपागतेन प्राप्तेन चन्द्रबिम्बेनेव चन्द्रमण्डलेनेव, अयं २० किल एष खलु भगवद्रूपो नीरदः विमुक्ताम्बरः त्यक्ताकाशः पक्षे त्यक्तवस्त्रः त्यक्तचञ्चलानन्दो मुक्तविद्युद्विस्फुरण: पक्षे मुक्तभङ्गुरसुखः, सदा सर्वदा मरालीनां हंसीनां संतोषकरः पक्षे सदा सर्वदा अमरालोनां देवपङ्क्तीनां संतोषकरः इत्थं विचित्रबलाहको वर्तमानबलाहकविलक्षणः धीरसस्य वृद्धि धीरा एव सस्यानि ब्रीहयस्तेषां १० मनोहर होनेसे ), लतांगी-स्त्रियों में प्रेम करनेसे ( पक्षमें लताओंमें विस्तारके स्वीकृत करने से ), और सदारामानुरक्तता-निरन्तर स्त्रीविषयक रागके कारण ( पक्षमें उत्तम उद्यानोंमें २५ अनुराग होनेसे ) मैं बन्धनमें पड़ी थी अब भगवान्की सेवाके लिए सन्मुख होने मात्रसे मेरा बन्धन छूट गया है-मैं बन्धन मुक्त हो गयी हूँ इस कुतूहलसे ही वह पुष्प वृष्टि स्वयं पहल करती हुई पड़ रही थी। वे भगवान् उस लाल अशोक वृक्ष के मूलमें विद्यमान थे । जो उनके हृदयसे निकाले गये रागसे ही मानो आलिंगित था, मरकतमणियोंके हरे हरे पत्तोंसे सुशोभित था, मदसे अव्यक्त मधुर शब्द करनेवाले भ्रमर समहकी झंकारसे झंकृत ३० था, मणिमय फूलोंसे व्याप्त था तथा पल्लवोंके समूहसे सुशोभित था। जिनेन्द्र भगवान् शुक्ल वर्ण के उस छत्रत्रयसे सुशोभित हो रहे थे जो अपनी तीन संख्यासे ऐसा जान पड़ता था मानो उनके तीन लोकके आधिपत्यको प्रकट कर रहा था, जो तीनों जगत्की लक्ष्मीके हासके समान जान पड़ता था, भगवान्के कीर्तिपुंजके समान शोभा देता था, धर्मरूपी राज की मुसकानके समान सुशोभित था, अथवा सेवाके लिए समीपमें आया हुआ चन्द्रमाका ३५ मण्डल ही था । अथवा वह छत्रत्रय ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् एक विचित्र मेघ हैं इसलिए कुतूहल वश उन्हें देखनेके लिए शरद् ऋतुके तीन बादल ही आये हों जो कि विस्मयके कारण वहीं स्थिर हो गये थे। भगवान्के विचित्र मेघ होनेका कारण यह था कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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