SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [८१५२$५२) ततः परमष्टमङ्गलनवनिधिसमेतनाट्यशालाधूपघटध्वजाभिरामनागकुमारद्वारपालकविराजितेन, रजतमयगोपुरचतुष्टयसंगतेन देवेन करिष्यमाणां धर्मव्याख्यां श्रोतुमागत्य वलयाकृतिमुपेतेनेव मानुषोत्तरपर्वतेन, शुभरुचिरसालेनापि कनकाभिख्याञ्चितेन अद्वितीयेनापि द्वितीयेन प्राकारेण परिगता, ततश्च सिद्धार्चासनाथसिद्धार्थवृक्षाङ्कितमध्यभागेन कल्पेश्वरसेवितकल्पद्रुम५ वनेन विलसमाना, ततश्चतुरगोपुरविराजमानया सादरैः सुरैः समानीय निवेशितमेव कैलासाचलाधित्यकया वज्रमयवेदिकया सुरतरुकुसुमकिसलयनिचयविरचितवन्दनमालासुन्दरैर्दशभी रत्नतोरणः प्रकाशमाना, ततः पद्मरागनयेर्मूरिव जनानुरागैः सुरनिकरनिरन्तरसेव्यमानस्ताद्रूप्यमुपगता ध्वजाः स्युर्दशभेदकाः । अष्टोत्तरशतं ज्ञेयाः प्रत्येकं पालिकेतनाः । एकैकस्यां दिशि प्रोच्चास्तरङ्गास्तोयधेरिव ।' इत्यादिपुराणे जिनसेनोक्तत्वात् । आर्याच्छन्दः ॥३२॥ ६ ५२ ) तत इति-ततः परं ध्वजभूमिमतिक्रम्याग्रे अष्टमङ्गलनवनिधिभिः समेतः नाट्यशालाधूपघटध्वजाभिरामः नागकुमारद्वारपालकविराजितश्च तेन, रजतमयगोपुराणां चतुष्टयेन संगतस्तेन, देवेन वृषभजिनेन्द्रेण करिष्यमाणां विधास्यमानां धर्मव्याख्यां श्रोतुं निशामयितुम् आगत्य वलयाकृति कङ्कणाकारम् उपगतेन प्राप्तेन मानुषोत्तरपर्वतेनेव, शुभरुच्या प्रशस्तकान्त्या रसालेनापि आम्रणापि कनकाभिख्याञ्चितेन धत्तरकवृक्षनामधेयस हितेन, पक्षे शुभरुचिरश्चासौ साल: परिधिश्चेति शुभरुचिरसालस्तेन तथाभूतेनापि कनकस्य सुवर्णस्य अभिख्या शोभा तयाञ्चितेन सहितेन, अद्वितीयेनापि प्रथमे१५ नापि द्वितीयेन पक्षे अद्वितीयेनापि निरुपमेणापि द्वितीयेन द्वितीयसंख्याकेन प्राकारेण सालेन परिगता परिवृता, ततश्च द्वितीयसालानन्तरं च सिद्धार्चाभिः सिद्धप्रतिमाभिः सनाथः सहितो यः सिद्धार्थवृक्षः सिद्धार्थनामधेयवृक्षस्तेनाङ्कितो मध्यभागो यस्य तेन, कल्पेश्वरेण कल्पवासिदेवेन्द्रेण सेवितं यत् कल्पद्रुमवनं कल्पतरूयानं तेन विलसमाना शोभमाना, ततः कल्पद्रुमवनादने चतुर्गोपुरैः विराजमानया शोभमानया सादरैः सुरैः समानीय निवेशितया स्थापितया कैलासाचलस्याधित्यका उपरितनभूमिस्तयेव वज्रमयवेदिकया, सुरतरूणां कल्पानोकहानां कुसुमकिसलयनियेन पुष्पपल्लवसमूहेन विरचिता या वन्दनमालास्ताभिः सुन्दरै रम्यैः दशभि रत्नतोरणः प्रकाशमाना, ततः पद्मरागमयैर्लोहितमणिनिर्मितैः मूर्तेः साकारैः जनानुरागैरिव लोकप्रीतिभिरिव, चिह्नोंसे युक्त ध्वजाओंकी पंक्ति सुशोभित हो रही थी ॥३२॥ ६५२ ) ततः परमितिध्वजाओंकी भूमिसे आगे चलकर वह सभा उस प्रकारसे परिवृत थी जो अष्ट मंगल द्रव्य तथा नव निधियोंसे सहित नाट्यशालाओं, धूपघट और ध्वजाओंसे सुन्दर तथा नागकुमार २५ नामक द्वारपालोंसे सुशोभित, चाँदीसे निर्मित चार गोपुरोंसे युक्त था, जो ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान के द्वारा की जानेवाली धमकी व्याख्याको सुननेके लिए आकर वलयके आकारको प्राप्त हुआ मानुषोत्तर पर्वत ही हो, जो शुभ कान्तिके द्वारा रसाल-आम्ररूप होकर भी कनक-धतूरा इस नामको प्राप्त हो रहा था (पक्षमें शुभ तथा सुन्दर साल प्राकार होकर भी कनकाभिख्या-स्वर्णकी शोभासे सहित था,) तथा अद्वितीय-द्वितीयसे ३० भिन्न होकर भी द्वितीय था ( पक्षमें अनुपम होकर भी संख्यामें द्वितीय था)। उस द्वितीय प्राकारसे आगे चलकर वह सभा उस कल्पवृक्षोंके वनसे सुशोभित हो रही थी जिसका मध्यभाग सिद्धप्रतिमाओंसे सहित सिद्धार्थ वृक्षोंसे युक्त था, तथा कल्पवासी देवोंके इन्द्रके द्वारा जो सेवित था। उससे आगे चलकर उस वज्रमय वेदिकासे घिरी हुई थी जो चार गोपुरोंसे सुशोभित थी तथा देवोंके द्वारा लाकर रखी हुई कैलास पर्वतकी अधित्यका३५ उपरितन भूमिके समान जान पड़ती थी। उस वेदिकामें कल्प वृक्षोंके फूलों और पल्लवोंके समहसे निर्मित वन्दन-मालाओंसे सुन्दर दश रत्नमय तोरण थे उनसे वह सभा प्रकाशमान हो रही थी। आगे चलकर उन नौ स्तूपोंसे सुशोभित थी जो पद्मरागमणियोंसे निर्मित थे तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy