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________________ २६० पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [७६१८शोभितरङ्गे सर्वतोमुखसमृद्धे कुशलिमकरे च, पद्माकर इव विकस्वरशोभनतामरससहिते कमलाकरे च, नन्दनवन इव सुरागविशोभिते तालमनोहरे मधुराप्सरःकुलशोभिते च, नृपभवनमध्यलसमानाभिषेकमण्डपे सुरवारवनिताकरपल्लवविधूयमानचारुचामरसमीरान्दोलितप्रलम्बमानमन्दारमालाञ्चितं देवं त्रिभुवनपति हरिविष्टरे प्राङ्मुखं विनिवेशयामास । $ १८) तत्रानन्दात्रिभुवनपति विष्टरे तस्थिवांसं __ गङ्गासिन्धुप्रमुखसलिलैरभ्यषिञ्चन्सुरेशाः। गुञ्जन्ति शब्दं कुर्वाणानि यानि मजीराणि नूपुराणि तेषां मनोहरझङ्कारेण चारुशिञ्जितेन प्रवर्धमानः समेधमानः कोलाहलो यस्मिस्तस्मिन्, पारावार इव सागर इव परिशोभितः परिलसितो रङ्गो नृत्यभूमियस्मि स्तस्मिन् पारावारपक्षे परिशोभिनः समन्ताच्छोभमानास्तरङ्गाः कल्लोला यस्मिस्तस्मिन्, सर्वतः समन्तात् १० मुखैारैः समृद्धे संपन्ने पारावारपक्षे सर्वतोमुखेन सलिलेन समृद्धे परिपूर्णे, कुशलिन्यः कुशलतायाः करस्तस्मिन् पारावारपक्षे कुशलिनः कुशलयुक्ता मकरा जलजन्तुविशेषा यस्मिस्तस्मिन्, पद्माकर इव कासार इव विकस्वरशोभाः प्रकटशोभासंपन्नाः नता नम्रोभूताश्च येऽमरा देवास्तैः सहितस्तस्मिन् पद्माकरपक्षे विकस्वरशोभनानि प्रकटितशोभायुक्तानि यानि तामरसानि पद्मानि तैः सहिते, कमलाया लक्ष्म्याः करस्तस्मिन् पद्माकरपक्षे कमलानां पद्मानामाकरः खनिस्तस्मिन्, नन्दनवन इव इन्द्रोद्यान इव सुरागशोभिते सुष्ठु रागः सुरागः १५ सुन्दरसंगीतध्वनिस्तेन शोभितः नन्दनवनपक्षे सुराणां देवानामगा वृक्षाः सुरागाः कल्पवृक्षास्तैः शोभिते समलकृते, ताललंयमानैर्मनोहरे रम्ये नन्दनवनपक्षे डलयोरभेदात् ताडमनोहरे ताडवृक्षसुन्दरे, मधुराप्सरसा सुन्दरसुरविलासिनीनां कुलेन समूहेन शोभिते च रम्ये च नन्दनवनपक्षे मधुराप्सरांसि मधुरजलतडागास्तेषां कुलैः समूहैः शोभिते च । १८) तत्रेति -तत्राभिषेकमण्डपे विष्ट रे सिंहासने तस्थिवांसं स्थितं त्रिभुवनपति वृषभजिनेन्द्रं सुरेशा देवेन्द्राः गङ्गासिन्धुप्रमुखानां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां सलिलरम्भोभिः, अभ्य २० था, वह मण्डप समुद्रके समान था क्योंकि जिस प्रकार समुद्र परिशोभि-तरंग-सब ओर शोभा देनेवाली तरंगोंसे युक्त होता है उसी प्रकार वह मण्डप भी परिशोभित-रंग-शोभायमान रंगभूमि-नृत्यभूमिसे सहित था, जिस प्रकार समुद्र सर्वतोमुखसमृद्ध-जलसे समृद्ध होता है उसी प्रकार वह मण्डप भी सर्वतोमुख समृद्ध-चारों ओर निर्मित द्वारोंसे समृद्धका ओट जिस प्रकार समुद्र कुशलिमकर-कुशलतासे युक्त मगरोंसे सुशोभित होता है उसी २५ प्रकार वह मण्डप भी कुलिमकर-कशलताको करनेवाला था। अथवा वह मण्डप तालाबके समान था, क्योंकि जिस प्रकार तालाब विकस्वर-शोभन-तामरस-सहित-खिले हुए शोभायमान कमलोंसे सहित होता है उसी प्रकार वह मण्डप भी विकत्वर शोभनतामरसहित-विकसित शोभासे युक्त नम्रीभूत देवोंसे सहित था, और जिस प्रकार तालाब कमलाकर-कमलोंकी खान होता है उसी प्रकार वह मण्डप भी कमलाकर--लक्ष्मीको करने३० वाला था। अथवा वह मण्डप नन्दनवनके समान था क्योंकि जिस प्रकार नन्दनवन सुराग शोभित-कल्पवृक्षोंसे सुशोभित होता है उसी प्रकार वह मण्डप भी सुरागशोभित-अच्छेअच्छे रागोंसे सुशोभित था, जिस प्रकार नन्दनवन तालमनोहर-ताड़ वृक्षोंसे सुन्दर रहता है उसी प्रकार वह मण्डप भी तालमनोहर-स्वर तालोंसे सुन्दर था और जिस प्रकार नन्दनवन मधुराप्सरःकुलशोभित-मीठे जलवाले सरोवरोंके समूहसे शोभित होता है उसी ३५ प्रकार वह मण्डप भी मधुराप्सरःकुलशोभित-सुन्दर अप्सराओं के समूह से शोभित था। $१८) तत्रेति-उस मण्डपमें सिंहासनपर बैठे हुए त्रिलोकीनाथका इन्द्रोंने हर्षपूर्वक गंगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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