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पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध हरिणी ( १७ वर्ण, न स म र स ला गः )
[२] ३, १८, ६२, ६८ [४] १३ [५] ५, १९ [ ६ ] १२ [ • ] ५ [८] १, २१, २५,
२६ । [९] १५ [१०] १६, १७, ४१, ४३ पुरुदेवचम्पू प्रबन्धका यह संस्करण और आभार-प्रदर्शन
आदिपुरुष भगवान् वृषभदेवको कथानायक बनाकर कविवर अर्हद्दासजीने अपनी काव्यप्रतिभाको कृतकृत्य किया है। आजसे ४३ वर्ष पूर्व जब मैं सागरके गणेश० विद्यालयमें अध्ययन करता था तब श्रीमान् पं० जिनदासजी शास्त्री फड़कुलेके द्वारा सम्पादित होकर माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे पुरुदेवचम्पूका प्रकाशन हुआ था। नयी पुस्तक छपकर आयी थी अतः उसके पढ़नेका उत्साह हृदयमें उत्पन्न हुआ।
के तात्कालिक साहित्याध्यापक श्री कपिलेश्वर झाने इसे पढाना स्वीकृत किया और मनोयोगपर्वक मैंने इसका अध्ययन शुरू कर दिया। दो-तीन वर्ष बाद मैं इसी विद्यालयमें जब साहित्याध्यापक हो गया तब प्रायः प्रतिवर्ष इसे पढ़ानेका अवसर मिलने लगा। ज्यों-ज्यों अनुभव बढ़ता गया त्यों-त्यों इसकी साहित्यिक विधाकी ओर आकर्षण बढ़ता गया। श्री पं० जिनदासजीने टिप्पणीके द्वारा ग्रन्थका हार्द प्रकट करनेका प्रयत्न तो किया परन्तु ऐसे श्लेषमय ग्रन्थोंका हार्द संक्षिप्त टिप्पणसे प्रकट नहीं होता अतः मनमें इच्छा होती थी कि इसकी एक टीका लिख दूं इसके पूर्व जीवन्धर चम्पकी टीका लिख चुका था। संस्कृत और हिन्दी टीका सहित उसका प्रकाशन जैन विद्वानोंने तो पसन्द किया ही परन्तु मध्यप्रदेशीय शासन साहित्यपरिषद्ने भी उसे अत्यन्त पसन्द किया और सन् १९६० में उसपर ५००) का मित्र पुरस्कार घोषित किया ।
पिछले वर्षों में जब भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषदकी ओरसे गरुगोपालदास बरैया शताब्दी समारोहका उत्सव दिल्लीमें किया गया तब उसमें जानेका अवसर मिला। उसी प्रसंगपर लोकप्रिय बक्ता श्री १०८ मुनि विद्यानन्दजीसे साक्षात् मिलनेका भी अवसर प्राप्त हुआ। मिलते ही आपने कहा कि 'पुरुदेवचम्पूकी टीका आप कर दीजिए'। मैंने कहा कि हो जायेगी। दिल्लीसे वापस आनेपर महाराजजीका और भी आदेश मिला। उससे प्रेरित होकर मैंने टीकाका काम प्रारम्भ कर दिया। हस्तलिखित प्रतिसे पाठभेद लेनेके बाद संस्कृत और हिन्दी टीका लिखी। तैयार होनेपर मैंने पाण्डुलिपि श्री १०८ मुनि विद्यानन्दजीके पास भेज दी। उन्होंने बड़ौतके चातुर्मासमें उसे मनोयोगपूर्वक देखा । श्लेषमय ग्रन्थकी मात्र हिन्दी टीकासे ग्रन्थका भाव स्पष्ट नहीं होता क्योंकि हिन्दीमें कोश, व्याकरण तथा अलंकारका चमत्कार उतना प्रकट नहीं किया जा सकता जितना कि संस्कृतमें; इसलिए मैंने दोनों टीकाएँ लिखी थीं। परन्तु दोनों टीकाओंको मिलाकर ग्रन्थका परिमाण विस्तत हो गया अतः मनिजी द्वारा उसके प्रकाशनकी व्यवस्था नहीं हो सकी । ऐसे प्रकाशन, व्ययसाध्य होनेसे छोटी-मोटी संस्थाओंसे हो भी नहीं सकते अतः भारतीय ज्ञानपीठके मन्त्री श्रीमान बाबू लक्ष्मीचन्द्रजीको मैंने लिखा और प्रसन्नताकी बात है कि उन्होंने यह अपूर्व ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठकी ओरसे प्रकाशित करना स्वीकृत कर लिया। पूज्य मुनिराजसे इसके निर्माणकी प्रेरणा मिली और ज्ञानपीठकी ओरसे इसके प्रकाशनकी व्यवस्था हुई इसलिए मैं मुनिराज जी तथा ज्ञानपीठके संचालकोंका अत्यन्त आभारी हूँ। साहित्य प्रकाशनके क्षेत्रमें भारतीय ज्ञानपीठने थोड़े ही समयमें जो कार्य किया है वह वचनागोचर है।
पुरुदेवचम्पू प्रबन्ध अपने ढंगका एक अपूर्व ग्रन्थ है। इसके श्लेष बहुत बुद्धिगम्य हैं उनका भाव प्रकट करनेका मैंने बुद्धिपूर्वक प्रयत्न तो किया है पर क्षायोपशमिक ज्ञानका भरोसा क्या ? अतः त्रुटियोंके लिए मैं विद्वद्वर्गसे क्षमाप्रार्थी हूँ।
सागर ( म. प्र.) माघ कृष्णा ८ वीर. २४९८
विनीत पन्नालाल जैन
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