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________________ प्रस्तावना १९ भवान्तर वर्णन और उसकी उपयोगिता अन्य शास्त्रों में जहाँ महापुरुषों के अवतारवादकी चर्चा आती है वहाँ जैन शास्त्रोंमें उनके उत्तारवादकी चर्चा की गयी है अर्थात् नीचेसे उठकर वे महापुरुष किस प्रकार बने, इसका वर्णन किया गया है। जैनदर्शन अनादि सिद्ध ईश्वरकी सत्ताको स्वीकृत नहीं करता । उसकी मान्यता है कि संसारका प्राणी ही अपनी साधनासे आत्मशुद्धिको प्राप्त करता हुआ अन्तमें परमशुद्ध अवस्थाको प्राप्त होता है और वही ईश्वर कहलाता है । ऐसे ईश्वर एक नहीं किन्तु अनन्त हैं । जैनपुराण ग्रन्थोंमें वर्णनीय महापुरुषोंके पूर्वभव वर्णनका प्रसंग इसी उद्देश्य से किया जाता है कि जिससे जनसाधारण समझ सके कि यह महापुरुष किस प्रकारकी साधना कर उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त हुए हैं पुरुदेवचम्पूके कथानायक भगवान् वृषभदेव हैं । इनका अस्तित्व आजसे असंख्य वर्ष पूर्व था । तृतीय काल के जब तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी थे तभी इनका निर्वाण हो चुका था । यह इस अवसर्पिणी में होने वाले चौबीस तीर्थंकरोंमें प्रथम तीर्थंकर थे । ग्रन्थकर्ताने आदिपुराणके अनुसार इनके निम्नांकित १० पूर्व भवोंका वर्णन किया है १. जयवर्मा, २. राजा महाबल, ३. ललितांगदेव, ४. वज्रजंघ, ५. भोगभूमिका आर्य, ६. श्रीधरदेव, ७. राजा सुविधि, ८. अच्युतेन्द्र, ९. वज्रनाभि चक्रवर्ती, १०. सर्वार्थसिद्धि और उसके बाद भगवान् वृषभदेव । ( १ ) जयवर्मा - पश्चिम विदेह क्षेत्रमें विद्यमान सिंहपुरके राजा श्रीषेण और उनकी रानी श्रीसुन्दरीके ज्येष्ठ पुत्र थे । इनके छोटे भाईका नाम श्रीवर्मा था । श्रीवर्मा, समस्त जनताको प्रिय था इसलिए पिताने उसे ही राज्य दिया । इससे जयवर्माके मनमें बड़ा खेद हुआ । उन्होंने विरक्त होकर मुनिदीक्षा ले ली । एक बार आकाशमें एक विद्याधर राजा बड़े वैभवके साथ जा रहा था। मुनि जयवर्माने उसके वैभवको देखकर मन में निदान किया कि इस तपस्या के फलस्वरूप मैं भी इसी प्रकार वैभवका स्वामी बनूँ । निदान के समय ही वामीसे निकले हुए एक सर्पने उन्हें इस लिया जिससे वे मरकर महाबल हुए और जन्मान्तरसे आगत भोगाकांक्षा के कारण भोग-विलास में मग्न रहने लगे । ( २ ) महाबल - गान्धिल देशके अलकापुरी के राजा अतिबल और उनकी रानी मनोरमाके पुत्र थे । पिताके दीक्षा लेनेके बादसे राज्य के अधिपति हुए । इनके स्वयंबुद्ध, महामति, सम्भिन्नमति और शतमति नामक चार मन्त्री थे । इन मन्त्रियों में स्वयंबुद्ध मन्त्री परम आस्तिक और महाबलका हितैषी था । एक बार उसने राजसभामें रौद्रध्यान, आर्त्तध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानका वर्णन करते हुए उनमें प्रसिद्ध हुए राजा अरविन्द, दण्डविद्याधर, शतबल और सहस्रबलकी कथा सुनायी जिससे महाबलका मन जैनधर्म के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु हो गया। एक बार उसी स्वयंबुद्धने सुमेरु पर्वतपर चारणऋद्विधारी मुनिराजसे महावल के विषय की जानकारी प्राप्त कर उसे सम्बोधित करते हुए कहा कि तुम्हारी आयु केवल एक माह की अवशिष्ट है अतः आत्मकल्याणके लिए अग्रसर होना श्रेयस्कर है । स्वयंबुद्धका सम्बोधन पाकर महाबलने बाईस दिन तक सल्लेखना व्रत धारण कर मरण किया और उसके फलस्वरूप ऐशान स्वर्ग में ललितांग देव हुए । ( ३ ) ललितांगदेव - उपपाद शय्यासे ऐसा उठा जैसे सोकर उठा हो । ऐशानस्वर्गका वैभव देख वह आश्चर्यमें पड़ गया । अनन्तर अन्य देवोंके कथनानुसार स्नानादिसे निवृत्त हो उसने सर्वप्रथम जिनेन्द्र भगवान् की अर्चा की । पश्चात् स्वर्गके भोगोपभोगों में मन लगाया । उसके अन्तिम समय में एक स्वयंप्रभा नामकी देवी हुई थी । उसके साथ ललितांगका सघन स्नेह था । उसी स्नेहके कारण इन दोनोंका अगले भवोंमें भी सम्पर्क होता रहा । आयु पूर्ण होनेपर ललितांगदेव वज्रजंघ हुआ और स्वयंप्रभा श्रीमती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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