SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना १७ भरतने बाहुबलीपर चक्ररत्न चला दिया। परन्तु वह भी उनका कुछ कर न सका, अन्तमें उन्होंने संसारसे विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली। भरतने षट्खण्ड भरतक्षेत्रका राज्य शासन सँभाला। अन्तमें श्री वृषभ जिनेन्द्रका कैलास पर्वतसे निर्वाण हुआ, देवोंने निर्वाण कल्याणकका उत्सव किया। इस प्रकार इस अल्पकाय काव्यमें कविने बड़ी कुशलताके साथ सम्पर्ण आदिपुराणका समावेश किया है और इस खूबीसे किया है कि पुराणका रूप बदलकर एक काव्यकी सजीव प्रतिमा सामने खड़ी कर दी है। पुरुदेवचम्पूपर अन्य कवियोंका प्रभाव ( आदान-प्रदान) तुलनात्मक पद्धतिसे अध्ययन करनेपर प्रतीत होता है कि अर्हद्दासजीने बाणभट्टकी कादम्बरी, तथा हरिचन्द्रके धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पूका अच्छी तरह आलोडन करनेके बाद ही पुरुदेवचम्पूकी रचना की है। जिनसेनका आदिपुराण तो इसका मूलाधार है ही अतः उसकी कल्पनाओं और कहीं-कहींपर शब्दोंका सादृश्य पाया जाना सब तरह सम्भव है। कादम्बरीकी निम्नांकित पंक्तियाँ देखिए यस्यां च सन्ध्यारागारुणा इव सिन्दूरमणिकुट्टिमेषु, प्रारब्धकमलिनीपरिमण्डला इव मरकतवेदिकासु, गगनपर्यस्ता इव वैडूर्यमणिभूमिषु, तिमिरपटलविघटनोद्यता इव कृष्णागुरुधूममण्डलेषु, अभिभूततारकापङ्क्तय इव मुक्ताप्रालम्बेषु, विकचकमलचुम्बिन इव नितम्बिनीमुखेषु, प्रभातचन्द्रिकामध्यपतिता इव स्फटिकभित्तिप्रभासु, गगनसिन्धुतरङ्गावलम्बिन इव सितपताकांशुकेषु, पल्लविता इव सूर्यकान्तोपलेषु, राहुमुखकुहरप्रविष्टा इवेन्द्रनीलवातायनविवरेषु विराजन्ते रविगभस्तयः । -कादम्बरी, निर्णयसागर बम्बईका अष्टम संस्करण, पृष्ठ ११६-११७ इसका पुरुदेवचम्पूकी 'यत्र च जिनभवने' आदि ( पृ. ६५ ) पङक्तियोंसे तुलना कीजिए। कादम्बरीका विलासवती वर्णन देखिए अथ तस्य चन्द्रलेखेव हरजटाकलापस्य, कौस्तुभप्रभेव कैटभारातिवक्षःस्थलस्य, वनमालेव मुसलायुधल्य, वेलेव सागरस्य, मदलेखेव दिग्गजस्य, लतेव पादपस्य, पुष्पोद्गतिरिव सुरभिभासस्य, चन्द्रिकेव चन्द्रमसः, कमलिनीव सरसः, तारापङ तिरिव नभसः, हंसमालेव मानसस्य, चन्दनवनराजिरिव मलयस्य, फणामणिशिखेव शेषस्य, भूषणमभूत्रिभुवन विस्मयजननी जननीव वनिताविभ्रमाणां सकलान्तःपुरप्रधानभूता महिषी विलासवती नाम । -कादम्बरी उक्त संस्करण, पृष्ठ १३५ । इसके साथ पुरुदेवचम्पूका ‘सा खलु बिम्बौष्ठी' आदि मरुदेवीवर्णन देखिए (पृ. १४१ ) । कुछ सन्दर्भ धर्मशर्माभ्युदयके देखिए प्रस्थैरदुःस्थैः कलितोऽप्यमानः पादैरमन्दैः प्रसृतोऽप्यगेन्द्रः ।। मुक्तो वनैरप्यवनः श्रितानां यः प्राणिनां सत्यमगम्यरूपः ।। (ध० श० १०५) इसका ‘गान्धिलविष्टपे' आदि वर्णन ( पृ. ८ ) से तुलना कीजिए अवकरनिकुरम्बे मारुतेनापनीते ___ कुरुत घनकुमाराः साधु गन्धोदवृष्टिम् । तदनु च मणिमुक्ताभङ्गरङ्गावलीभि विरचयत चतुष्कं सत्त्वरं दिक्कुमार्यः ।। स्वयमयमिह धत्ते छत्रमीशाननाथ स्तदनुगतमृगाक्ष्यो मङ्गलान्युत्क्षिपन्तु । जिन सविधममा नतिताबालवाल व्यजनविधिसनाथाः सन्तु सानत्कुमाराः ॥ प्रस्ता०-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy