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________________ १२८ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [३६९०$ ९० ) राकाकोकरिपुप्रतीतवदनो राजीवसल्लोचनः श्रीमानच्युतवासवः सुरभिलं मन्दारमाल्यं वहन् । रेजे भूषणरत्नकान्तितटिनीखेलन्मरालस्फुर देहः काञ्चनशैलशृङ्गतुलितावंसौ दधत्सुन्दरः ॥४९॥ ६९१ ) यस्य च समदया गजघटया तुलिता चित्रवृत्तिः। सदाभया तनुलतया सदृशी सामानिकपरिषत् । अतिशोभनया संपदा समाना देवोसंततिः। अतिमृदुलया वचोधारया संमिता सुरसुन्दरीजनगानकला । शोभितसुवर्णसरोरुहया करकान्त्या तुल्या सप्तानोकपद्धतिः । कलित निकपदभाजः सुरा देवाः समजायन्त बभूवुः ॥४८॥ ६९० ) राकेति-राकायाः पौर्णमास्याः कोकरिपुश्चन्द्रस्तद्वत्प्रतीतं प्रसिद्धं वदनं मुखं यस्य तथाभूतः, राजीवे कमले इव सल्लोचने यस्य तथाभतः, श्रीमान् लक्ष्मोमान् सुरभिलं सुगन्धिमन्दारमाल्यं कल्पवृक्षकुसमस्रजं वहन् दधत्, भषणरत्नानामाभरणमणीनां कान्तिरेव तटिनी तरङ्गिणी तस्यां खेलन्मराल इव क्रोडद्धंस इव स्फुरन् शोभमानो देहो यस्य तथाभतः, काञ्चनशैलशृङ्गतुलितो सुमेरुगिरिकूटसंनिभौ अंसो भुजशिरसी दधत् सुन्दरो रमणीयः अच्युतवासवोऽच्युतेन्द्रो रेजे शुशुभे। उामालंकारः । शार्दूलविक्रीडितछन्दः ॥४९॥ ६९५ ) यस्येति-यस्याच्युतेन्द्रस्य चित्तवृत्तिर्मनोवृत्तिः गजघटया करिपङ्क्त या तुलिता सदृशी, उभयोः सादृश्यमाह-समदयेति-समा दया यस्यां तथाभता समदया समकरुणा १५ चित्तवृत्तिः गजघटापक्षे मदेन सहिता समदा तया दानसहितया । यस्य सामानिकपरिषद् सामानिकदेवसभा तनुलतया शरीरवल्ल्या सदृशी संनिभा, उभयोः सादृश्यमाह-सदाभयेति सदा सर्वदा अभया निर्भया सामानिकपरिषद् तनुलतापक्षे सती प्रशस्ता आभा कान्तिर्यस्याः सा सदाभा तया । यस्य देवीसंततिः संपदा संपत्या समाना सदशी, उभयो: सादृश्यमाह-अतिशोभनयेति-अतिशोभो नयो नीतिर्यस्याः सा देवीसंततिः संपत्पक्षे अतिशयं शोभनं यस्याः सा अतिशोभना तया । यस्य सुरसुन्दरीजनगानकला सुरसुन्दरीजनानां देवीनां गानकला सगीतवैदग्धी वचोधारया वचनपङ्क्त्या संमिता संनिभा उभयो: सादृश्यमाह-अतिमृदुलया अतिशयेन मृदुः कोमलो लयो यस्यां तथाभूता गानकला वचोधारापक्षेऽतिशयेन मृदुला तया। यस्य सप्तानीकपद्धतिः २० त्याग कर दिया था ऐसा केशव भी दैगम्बरी दीक्षाको धारण कर अच्युत स्वर्गमें प्रतीन्द्र हुआ ॥४७॥ ६८९) पूर्वोक्ता इति-पहले कहे हुए वरदत्त आदि राजपुत्र पुण्यके प्रभावसे उस समय उसी अच्युत स्वर्गमें सामानिक देव हुए ॥४८॥ ६९०) राकेति-जिनका मुख पूर्णिमा२५ के चन्द्रमाके समान था, उत्तम नेत्र कमलके समान थे, जो लक्ष्मीसे युक्त था तथा सुगन्धित कल्पवृक्षके फूलोंकी मालाको धारण करता था, जिसका शरीर आभूषण सम्बन्धी रत्नोंकी कान्तिरूपी नदीमें खेलते हुए हंसके समान शोभायमान था, जो सुमेरुपर्वतके शिखरके समान ऊँचे कन्धोंको धारण कर रहा था तथा स्वयं अत्यन्त सुन्दर था ऐसा अच्युतेन्द्र सुशोभित हो रहा था ॥४९।। ३९१) यस्येति-जिस अच्युतेन्द्रकी चित्तवृत्ति, गजघटा-हाथियोंकी पंक्तिके ३० समान थी क्योंकि जिसप्रकार चित्तवृत्ति समदया-अनुरूपदयासे सहित थी उसी प्रकार गजघटा भी समदया-मदसे सहित थी। जिसकी सामानिक जातिके देवोंकी सभा तनुलता-शरीररूपी लताके समान थी क्योंकि जिसप्रकार सामानिक देवोंकी सभा सदाभयासदा निर्भय रहती थी उसीप्रकार तनुलता भी सदाभया-समीचीन आभासे सहित थी। जिसकी देवीसन्तति-देवियोंकी श्रेणी संपदाके समान थी क्योंकि जिसप्रकार देवोसन्तति ३५ अतिशोभनया-अत्यन्त शोभायमान नयोंसे सहित थी उसीप्रकार संपदा भी अतिशोभनया अत्यन्त शोभायमान थी जिसके सुरसुन्दरीजनोंकी गानकला वचनधाराके समान थी क्योंकि जिसप्रकार सुरसुन्दरीजनोंकी गानकला अतिमृदुलया-अत्यन्त कोमल लयसे सहित थी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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