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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
___ आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध के उपधान सूत्र नामक नवम अध्ययन में भगवान महावीर की ध्यान - साधना संपृक्त चर्चा का जो वर्णन आया है वह बड़ा ही मार्मिक है। वे अपने ध्यान में कितने दृढ़ निष्प्रकम्प और प्रबल थे, यह उस वर्णन से व्यक्त होता है। ध्यान के अनेक आलम्बन होते हैं। भगवान महावीर कभी- कभी एक-एक प्रहर पर्यंत तिर्यक् भित्ति पर अपनी आँखों को एकाग्रकर अन्तरात्मा के ध्यान में लीन रहते। भित्ति पर ध्यान में एकाग्र उनके नेत्रों को देखकर भयभीत बने हुए बच्चे 'अरे ! यह कौन है? मारो इसे मारो !' यों कहकर चिल्लाने लगते।
जब कभी भगवान किसी गृहस्थ या अन्य तीर्थिक जन-संकुल स्थान पर ठहरे हुए होते तो उन्हें देखकर कामविह्वल नारियाँ उनसे कामयाचना करतीं। किन्तु वे भोग को कर्मबन्ध का हेतु मानते हुए कदापि अब्रह्मचर्य की ओर नहीं झुकते। वे अन्तरात्म भाव में गहनतया संप्रविष्ट होकर ध्यान में तन्मय रहते। कभी ठहरने हेतु किन्हीं गृहस्थों का स्थान प्राप्त हो जाता तो वे गृहीजनों के साथ जरा भी घुलते-मिलते नहीं थे। वे उनके संपर्क-संसर्ग का परित्याग करते हुए धर्मध्यान में सर्वथा निमग्न रहते। किसी के द्वारा कुछ पूछे जाने पर भी वे कुछ नहीं बोलते। यदि उन्हें बोलने को बाध्य किया जाता तो वे स्थान का परित्याग कर अन्यत्र चले जाते परन्तु अपने ध्यान का कदापि अतिक्रमण नहीं करते।
जो लोग उन्हें अभिवादन, नमन या प्रणमन करते, उनके प्रति वे आशीर्वचन नहीं बोलते और अनार्य स्थानों में जहाँ लोग उन्हें डण्डों से ताड़ित करते, उनके बाल नोंच लेते, अंग-भंग करने का यत्न करते किन्तु वे उन्हें अभिशाप नहीं देते। भगवान की यह ध्यानमयी साधना अन्य साधकों के लिए सुगम नहीं थी।
भगवान महावीर उत्कटिक आदि ध्यानों, चित्त आसनों में अवस्थित होकर चित्त को स्थिर कर ध्यान करते। वे ऊर्ध्व, अध:, तिर्यक् लोक में विद्यमान जीवादि पदार्थों के द्रव्यत्व, पर्यायत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि को ध्यान का विषय अथवा आलम्बन बनाते। वे अध्यात्म से असम्बद्ध विषयों के संकल्प से दूर रहते हुए ध्यानपूर्वक आत्मसमाधि में ही केन्द्रित रहते।
वे क्रोध आदि कषायों को शान्त कर आसक्ति का परिवर्जन कर, शब्द एवं 16. आचारांग सूत्र 1.9. 45-48
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