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________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान खण्ड : द्वितीय 3. जो शाश्वत सत्यों से संबंधित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घकालीन होता है । 13 एतदर्थ ही समवायांग' 4 में स्पष्ट कहा है द्वादशांग भूत गणिपिटक भी नहीं था, ऐसा नहीं है, नहीं है, 'नहीं होगा' ऐसा भी नहीं है । वह था, है, और होगा । वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय और नित्य है । अंगबाह्य श्रुत वह होता है - 1. जो स्थविर कृत होता है । 2. जो बिना प्रश्न किए तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता है । आचार्य अकलंक ने कहा है कि आरातीय आचार्यों के द्वारा निर्मित आगम अंग-प्रतिपादित अर्थ के निकट या अनुकूल होने के कारण अंगबाह्य कहलाते हैं। 15 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल तथा 4 छेद एवं 1 आवश्यक इस प्रकार कुल 32 आगमों को स्थानकवासी, तेरापंथी सम्प्रदायों में प्रामाणिक माना गया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में इनके अतिरिक्त दस पन्ना (प्रकीर्णक) तथा महानिशीथ, जीतकल्प, ओघ निर्युक्ति एवं पिण्ड निर्युक्ति सहित 45 आगम मान्य हैं। - आगमों में ध्यान किस रूप में उल्लिखित है, आगामी पृष्ठों में उसका विवेचन प्रस्तुत है - आचारांग सूत्र और उसके व्याख्या साहित्य में ध्यान : जैन धर्म में ध्यान की परम्परा प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही है। ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वप्रथम 'आचारांग' में महावीर के ध्यान संबंधी अनेक संदर्भ उपलब्ध होते हैं। भगवान महावीर को 'ध्यानयोगी' विशेषण से भी विभूषित किया गया है। 1 13. विशेषावश्यक भा. गा. 552 14. समवायांग, समवाय 148 15. अंकलंक, तत्त्वार्थराज वार्तिक 1 / 20 Jain Education International 8 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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