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________________ भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा खण्ड : प्रथम ऐसा निर्देश किया है।65 एकाग्र एवं निरुद्ध भूमिगत वृत्तिनिरोध ही योग है। चित्त की प्रत्येक भूमिगत वृत्ति निरोध नहीं है। निरुद्ध भूमिगत वृत्तिनिरोध, वृत्तियों का पूर्ण निरोध होने से असम्प्रज्ञात समाधि का साक्षात् साधन होने से योग ही है, तथापि एकाग्र भूमिगत वृत्तिनिरोध की कारणता को स्पष्ट करते हुए व्यास लिखते हैं, यतचित्त में सद्भूत पदार्थ (अर्थात् ध्येय) को प्रद्योतित करने से, क्लेशों को क्षीण करने से, कर्मों के बन्धन अर्थात् कर्माशय को शिथिल करने से तथा असम्प्रज्ञात समाधि में भी सहायक बनने से सम्प्रज्ञात योग कहा जा सकता है।०० वाचस्पति मिश्र योग के विरोधी तत्त्वों-क्लेश एवं विपाकाशय को उत्पन्न करने वाली चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग मानते हैं। ऐसा मानने से सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात दोनों समाधियोग शब्द में परिगणित होते हैं। भोजदेव ने अपनी वृत्ति राजमार्तण्ड में चित्त की एकाग्र अवस्था में बहिर्वृत्ति निरोध होने से इसे योग माना है तथा निरुद्ध भूमि में सर्ववृत्तियों और संस्कारों का लय होने से योग की संभावना व्यक्त की है। दोनों ही भूमियों में चित्त का एकाग्रता रूप परिणाम रहता है। विज्ञानभिक्षु 'योगलक्षण' के इस सूत्र के साथ अग्रिम सूत्र को सम्मिलित कर अर्थ करते हैं। उनके अनुसार चित्त की वृत्तियों का निरोध जो द्रष्टा को वास्तविक स्वरूप में अवस्थित कराने का हेतु हो, वही योग कहा जा सकता है, अन्य नहीं,69 इस प्रकार सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दोनों समाधियों का अन्तर्भाव सूत्रगत योग शब्द में हो जाता है। इस साधना पद्धति के सात अंग बताये गये हैं। षष्ट कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि। घेरण्ड संहिता और हठयोग प्रदीपिका 65. व्यास भाष्य, 1.2 पृ. 9 66. वही, 1.1 पृ. 1 67. तत्त्ववैशारदी, 1.2 पृ. 10 68. भोजवृत्ति, 1.2 पृ. 3 69. योगवार्त्तिक 1.2, पृ. 13 ~~~~~~~~~~~~~~~, 34 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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