________________
खण्ड: प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm में यह विवेचन करेंगे कि जैन और बौद्ध परम्पराओं में इस साधना विधि का विकास कैसे हुआ। न परम्परा में ध्यान और तत्संबंधी साहित्य
जैन धर्म मुख्य रूप से साधनापरक धर्म है। उसके साहित्य में आचार पक्ष की ही प्रमुखता देखी जाती है। जैन आगम साहित्य को मुख्य रूप से चार अनुयोगों में (विभागों में) वर्णित किया गया है : द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग, चरणानुयोग।
ज्ञान और साधना का पक्ष मुख्य रूप से चरण-करणानुयोग के अन्तर्गत आता है। जैन आगमों में आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि ग्रन्थ चरण - करणानुयोग से संबंधित माने गये हैं। इन ग्रन्थों में यथाप्रसंग ध्यान और कायोत्सर्ग का विवेचन उपलब्ध है। वैसे ध्यान और कायोत्सर्ग जैन परम्परा में अभ्यन्तर तप के अन्तर्गत आते हैं। इन ग्रन्थों में और विशेष रूप से उन प्रसंगों में जहाँ अभ्यन्तर तपों का वर्णन हुआ है वहाँ ध्यान और कायोत्सर्ग संबंधी विशेष चर्चा हुई है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि मूल आगमों में ध्यान और कायोत्सर्ग को अलग-अलग बताया है। वस्तुत: जैन परम्परा में ध्यान चित्त की एकाग्रता और निर्विकल्पता की साधना है तो कायोत्सर्ग देह के प्रति निर्ममत्व की साधना है। चित्त के विकल्पों के मूल में कहीं-न-कहीं ममत्व का भाव निहित होता है। अत: निर्ममत्व की साधना के बिना निर्विकल्पता की साधना संभव नहीं है। इस संबंध में गहन विवेचना की दृष्टि से आगमों की व्याख्या के रूप में लिखे गये नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। नियुक्ति साहित्य में विशेष रूप से 'आवश्यक नियुक्ति' इस संबंध में विशेष प्रकाश डालती है। नियुक्तियों के अतिरिक्त भाष्य, चूर्णि और टीका साहित्य में भी ध्यान और कायोत्सर्ग संबंधी विवेचन उपलब्ध होते हैं जिनकी चर्चा आगे यथाप्रसंग की जाएगी।
यहाँ जैन परम्परा के ध्यान संबंधी साहित्य का सूचनात्मक आकलन प्रस्तुत है -
सर्वप्रथम आचारांग सूत्र में साक्षीभाव की साधना के रूप में ध्यान - साधना के निर्देश विकीर्ण रूप में प्राप्त होते हैं किन्तु ये संदर्भ जैन परम्परा की प्राचीन ध्यान ~~~~~~~~~~~~~~~ 19 ~~~~~~~~~~~~~~~~
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org