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________________ भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा खण्ड: प्रथम गण्ड - राग - द्वेषमय दु:खमरण रूपी गाँठ (व्रण) से पीड़ित हूँ। दु:खमरण के ग्रन्थिबन्धन से जीर्ण (शिथिल) हो रहा हूँ। इस ग्रन्थि का मैं नाश करूंगा, दुःख-मरण का नाश करके रहूंगा। अत: दु:ख-मृत्यु रूपी गाँठ का नाश करके ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आसेवना करूंगा। ज्ञान से जानकर, दर्शन से देखकर, संयम से संयमित होकर, तप से अष्टविध कर्मरज मैल को झड़का कर, आत्मा को शोधित कर अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गति रूप संसार की अटवी को पार कर शिव, अचल, अरुज, अक्षय, अव्याबाध, पुन: जन्मरहित सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त कर भविष्य में शाश्वत काल पर्यन्त मैं वहाँ स्थिति करूंगा।28 'ऋषिभाषित' में इस उपदेश को देखकर स्पष्ट रूप से यह लगता है कि रामपुत्त के विचारों का जैन परम्परा के साथ अत्यन्त नैकट्य था। जैन परम्परा के समान उन्होंने भी अष्टकर्म का उल्लेख किया है। अष्टकर्म से विमुक्ति के बाद सिद्ध अवस्था के स्वरूप का उनका चित्रण भी जैन परम्परा के 'शक्रस्तव' के पाठ से साम्य रखता है। रामपुत्त के इस अध्ययन के पूर्व वाले अध्ययन में तो ध्यान की महिमा का विस्तृत उल्लेख हुआ है और यह बताया गया है जिस प्रकार शरीर में सिर का स्थान महत्त्वपूर्ण है उसी प्रकार साधना में ध्यान का स्थान महत्त्वपूर्ण है।29 ऐसा लगता है कि वर्तमान युग में विपश्यना की जो पद्धति प्रचलित है, उसे दृष्टिगत रखते हुए जैन परम्परा में जैन आगम साहित्य को आधार बनाकर जो प्रेक्षाध्यानविधि का विकास हुआ है वह विधि अपने मूल रूप में कहीं-न-कहीं भारतीय श्रमण परम्परा के महाश्रमण रामपुत्त की ध्यान-साधना विधि का ही आंशिक रूप से संस्कारित स्वरूप है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि वर्तमान में ऋषिभाषित में उपलब्ध एक अध्याय को छोड़कर जैन और बौद्ध साहित्य में अथवा उपनिषद्-साहित्य में रामपुत्त की ध्यान साधना विधि का विशेष विवरण देने वाला अंश या कोई स्वतंत्र ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। फिर भी जो संकेत उपलब्ध हुए हैं उनके आधार पर निर्विवाद रूप में यह नहीं माना जा सकता है कि जैन और बौद्ध परम्परा में जो ध्यान साधना विधियाँ रही हैं वे रामपुत्त की ध्यानसाधना विधि से पूर्णत: अप्रभावित रही हों, अग्रिम पृष्ठों 28. वही, अ. 23 29. वही, अ. 22.14 ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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