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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
खण्ड : प्रथम
जिससे उसमें तनाव उत्पन्न न हो। इसी निर्विकल्पता की सिद्धि हेतु की जाने वाली चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है।
विभिन्न श्रमण परम्पराओं में ध्यान
___ ध्यान की प्रारम्भिक साधना हेतु श्रमण परम्परा में तीन तत्त्व आवश्यक माने गये हैं - (1) शारीरिक स्थिरता, (2) वाणीगत मौन और (3) चित्त को विकल्पों से दूर करने के लिए किसी विषय या वस्तु पर उसे केन्द्रित करना। चित्त की एकाग्रता को विकसित करने के लिए ध्यान की विभिन्न विधियाँ खोजी गई हैं। किसी बिन्दु विशेष पर ध्यान को केन्द्रित करने से त्राटक ध्यानविधि का विकास हुआ। 'आचारांग सूत्र' के नवम अध्याय में भगवान महावीर के द्वारा इस प्रकार की ध्यान साधना का उल्लेख है। उसमें कहा गया है कि वे तीर्थ की भित्ति पर दृष्टि को केन्द्रित करके ध्यान करते थे। ध्यान के दूसरे रूप का उल्लेख श्वास पर चित्त को केन्द्रित करने की विधि के रूप में मिलता है। प्राचीन जैन ग्रन्थों में श्वासोच्छ्वास पर ध्यान केन्द्रित करने को कहा गया है। इसे ही बौद्ध परम्परा में आनापानसती के रूप में बताया गया है। वर्तमान में भी विपश्यना का प्रारम्भिक बिन्दु आनापानसती है। आचारांग में ध्यान का एक तीसरा रूप शारीरिक क्रिया के अतिरिक्त चित को एकाग्र करना है। ध्यान का यह रूप ही आगे चलकर लोकविपश्यना या लोकप्रेक्षा के रूप में विकसित हुआ। जैन टीकाकारों ने 'लोक' का एक अर्थ शरीर भी माना है। इस प्रकार त्राटक साधना के अतिरिक्त श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा और विचार प्रेक्षा के संकेत भी प्राचीन जैन आगमों में और बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। रामपुत्त की ध्यान-साधना और उसका बौद्ध और जैन परम्परा पर प्रभाव
श्रमण परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। श्रमण साधक दैनिक जीवनचर्या में ध्यान साधना को विशेष महत्त्व देते थे। महावीर और बुद्ध के पूर्व भी अनेक ऐसे श्रमण साधक थे जो ध्यानसाधना की विशिष्ट विधियों के न केवल ज्ञाता थे, अपितु अपने सान्निध्य में अनेक साधकों को ध्यान की उन विधियों का अभ्यास भी करवाते थे। इन आचार्यों की ध्यान-साधना की अपनी-अपनी विशिष्ट विधियाँ थीं, ऐसे संकेत 23. आचारांग सूत्र 1.9.45
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