SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड : प्रथम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ होगा। वस्तुत: राग और द्वेष में भी राग, आसक्ति या तृष्णा का तत्त्व ही प्रधान होता है। द्वेष का जन्म तो राग की पूर्ति में होने वाली बाधाओं के कारण होता है। . भारतीय संस्कृति की तीनों धाराओं जैन, बौद्ध और हिन्दू का मुख्य लक्ष्य किसी-न-किसी रूप में एक ही रहा है। जैन साधना का लक्ष्य है - व्यक्ति राग और द्वेष से मुक्त हो। क्योंकि उसमें राग और द्वेष को ही कर्मबन्ध अथवा आत्मा की अविशुद्धि का कारण माना गया है। बौद्ध दर्शन में कहा गया है कि चित्त की विशुद्धि या निर्विकल्पता के लिए तृष्णा से मुक्त होना आवश्यक है। हिन्दू परम्परा में आत्मा की विशुद्धि के लिए आसक्ति का परित्याग आवश्यक माना गया है। 'गीता' के अनुसार आसक्त चित्त की सभी क्रियाएँ बन्धन का कारण होती हैं और अनासक्त चित्त की सभी क्रियाएँ विमुक्ति की दिशा में ले जाती हैं। इसका तात्पर्य यही है कि आत्मविशुद्धि अथवा समता की साधना के लिए चित्तवृत्ति को रागद्वेष, तृष्णा या आसक्ति से विमुक्त बनाना है। निर्विकल्पता की उपलब्धि का माध्यम चित्त को निर्विकल्प बनाने के लिए उसकी एकाग्रता आवश्यक होती है। क्योंकि जब तक चित्त में इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और वासनाएँ उठती रहती हैं तब तक वह एकाग्र नहीं हो पाता। इन इच्छाओं, वासनाओं और आकांक्षाओं के वैविध्य के कारण चित्त अनेक भागों में बँट जाता है। 'आचारांग सूत्र' में कहा गया है कि इच्छाओं और आकांक्षाओं से युक्त चित्त विभिन्न छेदों वाली चलनी के समान होता है। यह बिखरा हुआ चित्त ही हमारी अशान्ति और तनाव का कारण होता है। इससे ही आत्मा की समता भंग होती है। जितनी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, चित्त उतने ही रूप ले लेता है अत: चित्त को एकाग्र करने की आवश्यकता है। यद्यपि कभी-कभी वासनागत चित्त भी एकाग्र हो जाता है किन्तु उसकी इस एकाग्रता में निर्विकल्पता नहीं होती है। जैन परम्परा में आर्त्त ध्यान में भी कभीकभी चित्त की एकाग्रता देखी जाती है किन्तु वह एकाग्रता समता या आत्म-विशुद्धि में सहायक नहीं होती। अत: एकाग्रता के साथ-साथ निर्विकल्पता आवश्यक है। निर्विकल्पता की साधना के लिए चित्त को ऐसे विषय पर केन्द्रित किया जाता है TwiCNEPAL ~~~~~~~~~~~~~~~ 15 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy