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________________ खण्ड: प्रथम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम छठी शताब्दी ई. पूर्व के प्रथम चरण तक तो श्रमण संस्कृति जैन संस्कृति के ही पूर्व रूप में विकसित थी। अनन्तर तथागत बुद्ध के कारण इसकी एक धारा बौद्ध धर्म के रूप में प्रवाहित हो चली और कालान्तर में जैन और बौद्ध दोनों के लिये ही श्रमण संस्कृति शब्द व्यवहृत होने लगा। इसका प्रमुख कारण था कि दोनों महापुरुष महावीर और बुद्ध समकालीन थे और दोनों की विचार-धाराओं में बहुत अंशों में समानता थी। श्रमण परम्परा प्रारम्भ से ही तप और त्याग मूलक रही। उपलब्ध वाङ्मय से ज्ञात होता है कि ध्यान- साधना वस्तुत: श्रमण परम्परा की तपश्चर्या का ही एक रूप था। लगभग सभी श्रमण धारायें अपनी साधना- विधियों में समाधि और ध्यानसाधना को महत्त्व देती थीं। श्रमण और तापस की दैनिक चर्या में तप का महत्त्वपूर्ण स्थान था। 'ऋषिभाषित सूत्र' में गर्दभाल (दगभाल) के अध्ययन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो स्थान शरीर में मस्तक का है, वृक्ष के लिए जड़ का है वही स्थान समस्त मुनिधर्म में ध्यान का है।20 इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रमण परम्परा मूलत: ध्यान - साधना मूलक रही। गर्दभाल ऋषिवर और उनके शिष्य संजय का उल्लेख 'उत्तराध्ययन सूत्र' के 18 वें अध्याय में मिलता है। वहाँ उनकी साधना का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वे तपोधनमुनि काम्पिल्य नगर के केशव उद्यान में स्वाध्याय और ध्यान से युक्त होकर धर्मध्यान की साधना करते थे। इससे यह स्पष्ट है कि गर्दभाल ऋषि की जो साधना पद्धति थी उसमें ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान था।। ___ऋषिभाषित' में गर्दभाल ऋषि के द्वारा ध्यान के महत्त्व को स्पष्ट करना और उनके शिष्य संजय के द्वारा ध्यान की साधना में निरत रहना यह सूचित करता है कि श्रमण साधना में ध्यान एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था। जैन और बौद्ध ग्रन्थों में जहाँ ऋषियों की दिनचर्या का उल्लेख है वहाँ उनकी ध्यान-साधना का उल्लेख अवश्य 20. इसिभासियाई 22/14 सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्म य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते॥ 21. उत्तराध्ययन सूत्र 18.4 अह केसरम्मि उज्जाणे, अणगारे तवोधणे। सज्झायज्झाणं संजुत्ते, धम्मज्झाणं झियायइ ।। ~~~~~~~~~~~~~~~ 13 ~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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