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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
खण्ड : प्रथम
या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र सभी को समान रूप से आत्मचिन्तन करने एवं मुक्ति प्राप्त करने का अधिकार है।' आगमों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है। कोई भी व्यक्ति मात्र गोत्र अथवा धन से श्रेष्ठ नहीं होता, उसकी श्रेष्ठता तो उसके उत्तम कर्म, विद्या, धर्म और शील से है। आत्मा स्वरूपत: निर्मल और निर्विकार है। कर्म उसके मूल स्वरूप को आवृत कर देते हैं। आत्मा के इस विकार भाव को दूर करने के लिए शुद्ध भावपूर्वक समता की साधना अपेक्षित है। श्रमण संस्कृति की प्राचीनता
श्रमण संस्कृति के उद्भव और उसकी प्राचीनता के सन्दर्भ में यहाँ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। इतना निश्चित है कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति के बाद की संस्कृति नहीं है। सिन्धु घाटी के उत्खनन में प्राप्त कुछ यौगिक मुद्राएँ, वैदिक साहित्य में प्रयुक्त व्रात्य, वातरशना मुनि, श्रमण आदि शब्द, वेदों और पुराणों में ऋषभदेव के नामोल्लेख तथा चर्या और क्रिया-प्रक्रिया से स्पष्ट है कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति की पूर्ववर्ती है। यद्यपि वैदिक साहित्य से प्राचीन कोई श्रमण साहित्य उपलब्ध नहीं है, इसलिए भले ही कोई उसे पूर्ववर्ती न माने, पर समकालीन तो अवश्य ही मानना पड़ेगा।
पालि साहित्य में समणों के चार प्रकार बताये गये हैं - 1. मग्गजिन - साधना के मार्ग को भली-भाँति जानने वाले, 2. मग्गदेसिन - उसका उपदेश करने वाले, 3. मग्गजीविन - जीवन में उसे क्रियान्वित करने वाले और
4. मग्गइसिन - मार्ग के तत्त्वदर्शन को आत्मसात् करने वाले।' 1. उत्तराध्ययन सूत्र तथा
कम्मं विज्जा च धम्मो च सीलं जीवितमुत्तमं । एवेनमच्चा सुज्झन्ति न गोत्तेन धनेन वा॥ विसुद्धिमग्ग।।1।।
उद्धृत - अमर भारती-श्रमण संस्कृति अंक मार्च-अप्रैल 1971 2. उत्तराध्ययन सूत्र 25.33 3. जैनिज्म इन बुद्धिस्ट लिटरेचर, प्रथम अध्याय, डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर 4. सूत्त निपात 828
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