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टीकाओं में ध्यान से सम्बन्धित जो सामग्री हमें उपलब्ध हुई है उसे हमने आगमों के साथ ही रखने का प्रयास किया है। इसका मूल कारण यह है कि सामान्यतया ये आगमिक व्याख्यायें ध्यान विधि के स्वरूप एवं प्रकार आदि की चर्चा करते हुए आगमों का ही अनुसरण करती हैं। इनमें हमें कोई ध्यान सम्बन्धी मौलिक चर्चा दृष्टिगत नहीं हुई है। आगम में जो कुछ कहा गया है उसे ही किंचित् स्पष्टता के साथ यहाँ व्याख्यायित किया गया है। इन आगमिक व्याख्याओं में जिनभद्रगणि का विशेषावश्यक भाष्य महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें एवं चूर्णि साहित्य में ध्यान की परिभाषा एवं स्पष्टीकरण तो मिल जाता है किन्तु जो आगमिक मान्यता है उससे हटकर वहाँ हमें कोई भी नवीन बात नहीं मिलती है। विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि का ध्यान शतक या 'झाणाज्झयणं' उपलब्ध होता है जिसमें ध्यान सम्बन्धी विस्तृत चर्चा है। इस सम्बन्ध में हमने चतुर्थ अध्याय में चर्चा की है अत: यहां उसका विशेष उल्लेख आवश्यक नहीं। इस प्रकार आगमों में चारों ध्यानों के उपप्रकारों, लक्षणों, आलम्बनों एवं भावना आदि का ही उल्लेख मिलता है। उत्तराध्ययन में विशेष रूप से यह बात कही गई है कि ध्यान या कायोत्सर्ग की साधना से आत्मविशद्धि होती है और उससे जीव चित्त की समाधि पूर्वक सुख का अनुभव करते हैं।
आगम और आगमिक व्याख्याओं के पश्चात् तीसरे अध्याय में शौरसेनी आगम तुल्य साहित्य में ध्यान सम्बन्धी विवरणों को प्रस्तुत करने और उनकी समीक्षा करने का प्रयत्न किया गया है। अर्धमागधी आगम साहित्य तथा नियुक्ति आदि प्राचीन आगमिक व्याख्याओं के समकालीन इस साहित्य में कषायपाहुड़, षट्खण्डागम आदि कर्म साहित्य के ग्रन्थ, मूलाचार, भगवती आराधना, जैन साधनापरक ग्रन्थ एवं आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्मपरक ग्रन्थ समाहित हैं। इनके अतिरिक्त भी शौरसेनी भाषा में निबद्ध साधनापरक अन्य ग्रन्थ यथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा, योगसार, द्रव्यसंग्रह आदि में भी ध्यान सम्बन्धी निरूपण उपलब्ध होता है। यद्यपि षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि में चारों ध्यानों का उल्लेख मिल जाता है, किन्तु विशेष रूप से इन ग्रन्थों का प्रतिपाद्य आत्मविशुद्धि के हेतु धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही रहे हैं। इन ग्रन्थों में ध्यान को परिभाषित या व्याख्यायित करने की अपेक्षा वह आध्यात्मिक विकास यात्रा में किस प्रकार सहायक है, इसका उल्लेख हुआ है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने तो अपने ग्रन्थों में ध्यान का प्रयोजन शुद्ध आत्मतत्त्व में अवस्थिति को माना है। उनका विवेचन निश्चय नय प्रधान है। वे स्वस्वरूप में
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