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________________ में शीर्षस्थ स्थान बताना तथा उत्तराध्ययन में उनके ही शिष्य संजय के तप और ध्यान में निरत रहने के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय श्रमणधारा में तप और ध्यान का विशिष्ट महत्त्व था । औपनिषदिक ऋषि भी तप ध्यान आदि करते थे, ऐसे निर्देश भी उपलब्ध हैं। इसकी चर्चा भी प्रथम अध्याय में की गई है। जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों की ध्यानस्थ मुद्रा से भी यही सिद्ध होता है कि भारतीय श्रमण परम्परा मुख्यतया तप और ध्यान पर बल देती रही है और ध्यान उनकी साधना का एक विशिष्ट अंग होता था । पार्श्व के कथानक में भी कमठ के उपसर्ग के समय उनका ध्यान में स्थिर होना यही सूचित करता है कि भारतीय संस्कृति में ध्यान साधना अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में आगे हमने यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि भारतीय श्रमण संस्कृति में ध्यान का क्या महत्त्व और स्थान रहा है। हमें न केवल जैन परम्परा से अपितु वैदिक और बौद्ध परम्परा से भी अनेक सन्दर्भ मिले हैं जिनसे महावीर की पूर्वकालीन ध्यान साधना की परम्परा के प्रमाण प्राप्त होते हैं । जैन ध्यान साधना विधि के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख हमें आगम काल से ही मिलते हैं। आगमों में 'आचारांग' जैसे प्राचीन आगम से लेकर परवर्ती कालीन अनेक आगमों में ध्यान साधना के विविध संदर्भ उपलब्ध होते हैं । 'आचारांग' में महावीर की ध्यान साधना की विधि का स्वरूप उपलब्ध है। आगमों में स्थानांग, समवायांग और औपपातिक ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें ध्यान के आलम्बन, लक्षण, स्वरूप एवं प्रकारों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इनकी विशद चर्चा हमने प्रस्तुतकृति के द्वितीय अध्याय में की है। आगमों में प्रायः चारों ही ध्यानों का उल्लेख हुआ है। फिर भी यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि आगमयुग में साधनात्मक दृष्टि से तो केवल धर्मध्यान और शुक्लध्यान का ही महत्त्व स्वीकार किया गया है । षट्खण्डागम में इन्हीं दो ध्यानों की विस्तृत चर्चा है | आगम के समकालीन बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी श्रमणों के ध्यान सम्बन्धी कुछ उल्लेख मिलते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि आगमिक साधना पद्धति में ध्यान का महत्त्व और स्थान अक्षुण्ण रूप से बना रहा है । आगमों में ध्यान को श्रमण जीवन की साधना का विशेष अंग बताया गया है। आगमों में श्रमण जीवन चर्या में छह घण्टे ध्यान और 12 घण्टे स्वाध्याय करने के निर्देश हैं। अर्द्धमागधी आगमों के साथ-साथ उनकी नियुक्ति, भाष्य, चूर्णियों तथा (2) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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