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आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना
की क्षमता क्षीण हो जाती है। उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है - जानो और देखो। भगवान महावीर ने साधना के जो सूत्र दिये हैं, उनमें 'जानो और देखो' यही मुख्य है । 'चिन्तन, विचार या पर्यालोचन करो', यह बहुत गौण और बहुत प्रारम्भिक है। यह साधना के क्षेत्र में बहुत आगे नहीं ले जाता ।
'आचारांग सूत्र' में पुन: पुन: यह कहा गया है कि हे आर्य ! तू जन्म और वृद्धि के क्रम को देख | 24 जो क्रोध को देखता है, वह मान को देखता है। जो मान को देखता है, वह माया को देखता है। जो माया को देखता है, वह लोभ को देखता है, जो मोह को देखता है वह गर्भ को देखता है, वह जन्म को देखता है। जो नरक और तिर्यंच को देखता है, वह दुःख को देखता है, जो दुःख को देखता है, वह क्रोध से लेकर दुःख पर्यन्त होने वाले इस चक्रव्यूह को तोड़ देता है । 25 यह निरावरण द्रष्टा का दर्शन है | 26 तू देख, यह लोक चारों ओर प्रकम्पित हो रहा है । 27 ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं और मध्य में स्रोत हैं। उन्हें तुम देखो | 28 महान् साधक अकर्म (ध्यानस्थ मन, वचन और शरीर की क्रिया का निरोध कर,) होकर जानता - देखता है, 29 जो देखता है, उसके लिए कोई उपदेश नहीं होता । 30 जो देखता है, उसके कोई उपाधि होती है या नहीं होती ? उत्तर मिला नहीं होती ।
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आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में- “ देखना साधक का सबसे बड़ा सूत्र है । जब हम देखते हैं तब सोचते नहीं हैं और जब हम सोचते हैं तब देखते नहीं हैं। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और अन्तिम साधन है - देखना। कल्पना के चक्रव्यूह को तोड़ने का सबसे सशक्त उपाय है- देखना। आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जायेंगे, विकल्प शून्य हो जाएंगे। आप
24. आचारांग सूत्र, 3.26
25. वही, 3.83, 84
26. वही, 3.85
27. वही, 4.37
28. वही, 5.118
29. वही, 5.120 30. वही, 2.185
31. वही, 3.87
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खण्ड : नवम
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