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खण्ड : नवम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
यह अभ्यास की प्रथम भूमिका है, जिससे साधक निर्विकार और निर्मल मन:स्थिति को पाने की ओर अग्रसर होता है। 2) योग मुद्रा :
___ यह मुद्रा ध्यान साधना की दूसरी स्थिति है। साधक पद्मासन या सुखासन में संस्थित हो। दोनों हाथों की मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका-तीनों अंगुलियाँ सीधी रहें। अंगुष्ठ और तर्जनी परस्पर संयुक्त रहें। यह कायस्थिति एक विशेष भावबोध की उद्भाविका है। तीनों सीधी अंगुलियाँ मानसिक शुद्धि, वाचिक शुद्धि और कायिक शुद्धि की प्रतीक हैं जिनसे आधि, व्याधि और उपाधि अपगत होती है। आधि मानसिक रुग्णता, वेदना या व्यथा के अर्थ में है। व्याधि से आशय दैहिक अस्वस्थता, पीड़ा या कष्ट है। उपाधि मन-वचन एवं देह की संकल्प-विकल्प युक्त स्थिति की या असंतुलित, अस्थिर और अव्यवस्थित दशा की द्योतक है। मानव की ये बहुत बड़ी दुर्बलताएँ हैं। इन्हें पराभूत करने का अर्थ सत्य-पथ पर अग्रसर होना है। सत्य को आत्मसात् करना, उस पर सुप्रतिष्ठ होना ही वस्तुत: सम्यक्त्व है जो आत्मोत्कर्ष का आद्य सोपान है।
सांख्यदर्शन के अनुसार यह जागतिक सृष्टि त्रिगुणात्मिका है। सत्त्व, रजस् तथा तमस्-इन तीनों गुणों का समवाय-सहवर्तित्व जगत् है। गुणत्रय से अतीत होने का आशय शुद्ध स्वरूप का अधिगम है। तीनों सीधी अंगुलियाँ त्रिगुणातीत होने को उत्प्रेरित करती हैं।
अंगुष्ठ परमात्मा, ब्रह्मा, समाधि या परमधाम का प्रतीक है और तर्जनी जीवात्मा की। तर्जनी और अंगुष्ठ का संयोग जीव के ब्रह्म-सारुप्य को या आत्मा की परमात्मभाव की ओर गतिशीलता का सूचक है।
उपर्युक्त चिन्तन-धारा का आधार लेकर साधक बहिनिरपेक्ष बन आत्मसापेक्ष और अन्तत: परमात्म-सापेक्ष स्थिति प्राप्त करने को तत्पर या प्रयत्नशील रहता है।
(3) दीपकमुद्रा :
दीपक ज्योति का प्रतीक है। दीपक का अर्थ भी बड़ा सुन्दर है, जो दीप्त करे। दीपक मुद्रा में साधक सुखासन या पद्मासन में संस्थित हो, अपने दोनों हाथों wwwmmmmmmmmmmmm 33 wwwm.
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