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आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना
खण्ड: नवम
तीसरे प्रकरण में ध्यान की परिभाषा, ध्यान के सहायक तत्त्व, ध्यान और आहार, ध्यान और आसन इत्यादि विषयों के साथ-साथ मौन, प्रतिसंलीनता, स्वाध्याय एवं व्युत्सर्ग आदि का भी निरूपण किया गया है।
ध्यान की परिभाषा करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि किसी आलम्बन पर मन को संनिविष्ट करना-टिकाना अथवा मन-वचन एवं शरीर के योगों एवं प्रवृत्ति का निरोध करना ध्यान है।'
- आचार्य तुलसी के द्वारा की गई इस परिभाषा में जैन योग एवं पातंजल योग द्वारा दिये गये ध्यान के लक्षणों का समावेश है। एकाग्रचिन्तन और चित्तवृत्ति-निरोध दोनों ही इसमें आ जाते हैं। यदि सूक्ष्मता में जायें तो जहाँ चित्त की एकाग्रता होती है वहाँ योगों का निरोध भी हो जाता है। चैतसिक एकाग्रता और योगनिरोध लगभग अन्योन्याश्रित हैं। फिर भी स्पष्टीकरण की दृष्टि से इस परिभाषा की अपनी उपयोगिता है।
तत्पश्चात् उन्होंने ऊनोदरी, रसपरित्याग, उपवास, स्थान, आसन, मौन, प्रतिसंलीनता, स्वाध्याय, भावना एवं व्युत्सर्ग का उल्लेख किया है जो ध्यान में सहायक हैं। उसके बाद ऊनोदरी-अल्पाहार, रसपरित्याग और उपवास को परिभाषित किया है क्योंकि ध्यानयोगी के लिए आहार का विशेष महत्त्व है। लघु, सात्त्विक, सुपथ्य आहार उसे प्रमाद, आलस्य और अवसाद से दूर रखता है।
स्थान या आसन का लक्षण बतलाते हुए उन्होंने कहा है-शरीर को विधिवत् स्थिर बनाना, स्थिर बनाकर बैठना, स्थान या आसन कहा जाता है।
खड़े होकर, बैठकर, लेटकर किये जाने वाले आसनों के आधार पर उन्होंने ऊर्ध्वस्थान, निषीदन स्थान, शयन स्थान के रूप में आसन के तीन भेद बतलाये हैं।10
आगे उन्होंने तीनों भेदों की चर्चा की है।11 मौन, प्रतिसंलीनता, स्वाध्याय,
7. मनोनुशासनम् 3.1 8. वही, 3.2-5 9. वही, 3.6 10. वही, 3.7 11. वही, 3.8-11 ~~~~~~~~~~~~~~~
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