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________________ खण्ड : नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम को चल कहा है। तदनुसार वह कभी बाहर चला जाता है, कभी भीतर। उन्होंने उसे इष्ट भी कहा है अर्थात् वह आनन्दप्रद भी है क्योंकि वह अन्तरात्मा में जाकर कुछ ही समय तक स्थिर होता है। वे क्षण उसके लिए आनन्दप्रद होते हैं। आचार्य श्री तुलसी ने अन्तरात्मा में स्थिर होने की मन की स्थिति की इष्टता या आनन्दप्रदता की चर्चा नहीं की है। उन्होंने उसका किसी एक विषय पर निश्चल नहीं होना बताया है। यातायात मन को उन्होंने कभी अन्तर्मुखी बनने, कभी बहिर्मुखी बनने वाला कहा है। हेमचन्द्र भी लगभग ऐसा ही कहते हैं। विक्षिप्त और यातायात ये दोनों मानसिक स्थितियाँ, जो योग का प्रारम्भिक अभ्यास करते हैं, उनमें प्रकट होती हैं। आगे उन्होंने कहा है कि इन दोनों मानसिक भूमिकाओं के विकल्पपूर्वक बाह्य वस्तुओं का ग्रहण होता रहता है। इसलिए इनमें जो स्थिरता होती है उसकी मात्रा और काल स्वल्प होता है। जो मन अपने ध्येय में स्थिर बन जाता है उसे श्लिष्ट कहा है। जो अपने ध्येय में लीन या तन्मय बन जाता है उसे सुलीन कहा जाता है। जिस योगी की ध्यानाभ्यास की भूमिका परिपक्व हो जाती है, उस योगी के मन की ये दोनों भूमिकायें निष्पन्न होती हैं। इनमें बाह्य वस्तुओं का ग्रहण नहीं होता। अतएव भूमिकाओं में स्थिरता एवं दृढ़ता, दीर्घकालीन होती है तथा सहजानन्द की विपुल अनुभूति होने लगती है। इन दोनों मनों का विषय आत्मगत सूक्ष्मध्येय ही होता है। ___ जब मन बाह्य आडम्बरों से शून्य होकर केवल आत्मा में परिणत हो जाता है, सभी बाह्य आलम्बन निरोध पा लेते हैं तब उस मन को निरुद्ध कहा जाता है। यह भूमिका वीतरागावस्था से प्राप्त होती है। __ आचार्य तुलसी ने जो विवेचन किया है वह आचार्य हेमचन्द्र द्वारा किये गये विश्लेषण का ही सुन्दर और परिष्कृत रूप है, जिससे पाठक इस विषय को विशदतापूर्वक आत्मसात् कर सके। निरुद्ध मन के रूप में आचार्य तुलसी ने जिस भेद की परिकल्पना की है वह मन की सूक्ष्मतम परिकल्पना स्थिति के पर्यवेक्षण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सुलीनता का अग्रिम चरण निरुद्धता है। सुलीनता में तो मन का अस्तित्व बना रहता है, निरुद्धता में इसका विलय हो जाता है। ~~~~~~~~~~~~~~~ 17 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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