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________________ खण्ड : नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम नहीं होता। वह दर्शन ज्यों-ज्यों सूक्ष्मता लेता जाता है, हेय-क्षीण होता जाता है। जैनागमों में इसका अनेक प्रसंगों पर उल्लेख हुआ है। आचारांग सूत्र में कहा गया है: उदेसो पासगस्स नत्थि। उपदेश पश्यकस्य (दर्शकस्य) नास्ति जो देखता है, उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। आचारांगकार का यहाँ आशय यह है कि जब साधक में द्रष्टाभाव सुदृढ़ता पा लेता है तब पर-पदार्थों के प्रति उसमें औदासीन्य आ जाता है, राग-द्वेष आदि विकारों को परभाव मानकर वह उनसे छूटता जाता है। एक-दूसरे स्थान पर आचारांग में कहा गया है कि सुख और दुःख को जानकर उनकी अनतिक्रान्त अवस्थाओं का संप्रेक्षण कर उस क्षण को जानो-तत्क्षणवर्ती अवस्था को जानो। जो क्षण को जानता है वही पंडित या ज्ञानी है। यहाँ जो संप्रेक्षण शब्द आया है, वह विपश्यना का ही संसूचक है। इसका आशय यह है कि हम अपने सुख-दुःख को भोगते तो हैं किन्तु जानते नहीं। भोगने में कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व भाव है, जानने-देखने में ज्ञाता-द्रष्टा भाव है। स्वयं देखने और जानने, फिर अपने भीतर उसका अनुशीलन करने से विवेक जागृत होता है। जब किसी तत्त्व को, पदार्थ को जानेंगे ही नहीं तो उसकी उत्तमता-अधमता का बोध कैसे होगा ? उसके परित्याग का भाव ही कैसे उत्पन्न होगा ? परित्याग किया नहीं जाता, वह हो जाता है और तब होता है जब परित्याज्य या परिहेय भाव या पदार्थ को व्यक्ति देख लेता है, जान लेता है, विवेक द्वारा उसकी व्यर्थता का उसे बोध हो जाता है तो उसे छूटते देर नहीं लगती। आचारांगकार द्वारा कहे गये उपर्युक्त कथन का यही सार है, विपश्यना का भी यही हार्द है। जैन आगमों में विपश्यना और प्रेक्षा दोनों शब्द प्राप्त होते हैं। दोनों का लगभग एक ही आशय है। विपश्यना के साथ लगा हुआ वि उपसर्ग विशिष्टता या सूक्ष्मता का द्योतक है। ईक्षा के पूर्व लगा हुआ 'प्र' उपसर्ग प्रकृत या उत्कृष्ट का द्योतक है। अर्द्धमागधी प्राकृत में प्रेक्षा के लिए पेक्खा का प्रयोग हुआ है। विपश्यना के लिए पालि और प्राकृत में 'विपस्सना' का प्रयोग हुआ है। विपश्यना और प्रेक्षा उसके संस्कृत रूप हैं। संस्कृत में दृश् धातु को पश्य आदेश होता है। पश्यति पश्यन्ति आदि उसी के रूप हैं। पालि और प्राकृत में दृश् धातु के साथ-साथ पश्य (पश्य) पृथक् धातु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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