SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना विज्ञ अभ्यासी जनों के संपर्क और मार्गदर्शन से होता है। विपश्यना के साथ यह तत्त्वदर्शन जुड़ा है कि इस जीवन में लोग जो दु:ख, अशान्ति तथा क्लेश का अनुभव करते हैं उसका मूल कारण उनके मन में चिरसंचित काम, मोह, लोभ जैसे संस्कार हैं । वे भिन्न-भिन्न स्थितियों में जब उभार पाते हैं तो उनका मन विकारग्रस्त हो जाता है, उनकी शान्ति भंग हो जाती है और वे दु:खित हो जाते हैं। यद्यपि रागद्वेष आदि की परित्याज्यता की लोग चर्चाएँ करते हैं, सुनते हैं किन्तु स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, तब वे सब भूल जाते हैं। अपने आपको उन दूषित स्थितियों से बचा नहीं पाते, फलतः विचलित हो जाते हैं, विकारग्रस्त हो जाते हैं । इसका कारण यह है कि हम अपने पूर्व संचित कलुषित संस्कारों से पृथक्ता नहीं कर पाते तब तक उनसे नहीं छूट सकते हैं। खण्ड : नवम यद्यपि राग-द्वेषात्मक स्थितियों से बचने का एक साधारण उपाय यह है कि मन में जब कोई विकार उभरे, तत्क्षण अपने मन को किसी दूसरे विषय में लगा दिया जाये। इसका परिणाम यह होता है कि उस समय तो कुछ देर के लिए वह विकार मिट जाता है, किन्तु समय पाकर फिर उभर आता है। इसलिए विकार का यह प्रतिकार किसी स्थायी लाभ का हेतु नहीं बनता । अचेतन मन में जो विकारोत्पादक संस्कार संचित या व्याप्त हैं वे तो पहले की ज्यों अवस्थित रहते हैं, अतः ज्यों-ज्यों प्रसंग उपस्थित होते हैं, वे उभार पाते रहते हैं । इसके परिणामस्वरूप जीवन अशान्त और दु:खित होता रहता है। इसलिए यह आवश्यक है कि मूल प्रहार उन विकृत संस्कारों पर किया जाए । यहाँ प्रहार से अभिप्राय उनका सूक्ष्मतापूर्ण अवलोकन करना है। परिणामस्वरूप व्यक्ति में द्रष्टा भाव जागृत होगा। इससे सहज रूप में विकार तथा काम, क्रोध, राग-द्वेष, छल-कपट आदि क्षीण होते जायेंगे। यह देखना या विशेष रूप से देखना, अत्यन्त सूक्ष्म रूप से पर्यवेक्षण करना विपश्यना है। किसी वस्तु या पदार्थ को सूक्ष्मतापूर्ण देखने से उसके सत्यस्वरूप का या उस पदार्थ की वास्तविकता का साक्षात्कार होता है, यह आन्तरिक प्रक्रिया है जो बहुत ही सूक्ष्म है, बाहर से ज्ञात नहीं होती, किन्तु अन्त:करण के भीतर इसका आवर्तनप्रत्यावर्तन होता रहता है। जब यह दर्शन सूक्ष्मता में जाता है तब उस पदार्थ अथवा विचार की हेयता का अनुभव होता है जो केवल उपदेश - श्रवण या पुस्तक - पठन से 8 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy