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________________ खण्ड : अष्टम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम वे अपने आपको परमात्मा की प्रेयसी या प्रियतम के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनकी यह विधा निर्गुण परम्परा के महान् संत कबीर की अन्तर्भावना के साथ जुड़ जाती है। राम मेरो पीव, मैं तो राम की बहुरिया। राम पर-ब्रह्म-परमात्मा मेरे प्रिय पति हैं,मैं तो उनकी वधू-बहू हूँ। कबीर जिन भावों की अभिव्यंजना करते हैं, आनन्दघन जी भी अपने आपको भगवान ऋषभदेव की प्रेयसी के रूप में जोड़ते हुए शब्दान्तर से प्राय: ऐसी ही बात कहते हैं। कबीर और आनन्दघन गृही पति-पत्नी के भाव से सर्वथा अतीत, निरंजन, असंलग्न थे। दोनों ने ही इस भाव को अध्यात्म के परम पवित्र ढाँचे में ढालने का जो प्रयास किया वह भारतीय साहित्य में निश्चय ही विलक्षण है। भौतिकता या सांसारिकता की दष्टि से पुरुष के लिए सबसे अधिक प्रियता का स्थान उसकी पत्नी होती है। नारी के लिए सर्वाधिक मनोज्ञता, प्रियता और स्नेह का सर्वोत्कृष्ट भाव अपने पति में सन्निहित रहता है और सभी सांसारिक संबंध पतिपत्नी के नैकट्य की तुलना में सर्वथा मौन हो जाते हैं। इस निकटतम संबंध को रूपक द्वारा इन दोनों ही महान् संतों ने आत्म-परमात्मभावमूलक हो पावनतम रूप प्रदान किया, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। कामराग का स्थान यहाँ वीतरागभाव ले लेता है। ___ अधिकतर विद्वानों की यह राय है कि वे तपागच्छीय श्वेताम्बर मंदिरमार्गी परम्परा से सम्बद्ध थे। श्री अगरचंद नाहटा ने इनका खरतरगच्छीय परम्परा से संबंधित होना बतलाया है। खैर, जैसा भी रहा हो, इनके जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब ये साम्प्रदायिक परम्पराओं से विलग होकर विशुद्ध ध्यान-योगी के रूप में साधनारत हो जाते हैं। “सम्प्रदायो गुरुक्रमः" हेमचन्द्रजी की इस परिभाषा के अनुसार सम्प्रदाय तो गुरुपरम्परा से सम्बद्ध व्यवस्था है। जब साधक अपने आपको सर्वथा साधना में समर्पित कर देता है, तो सम्प्रदाय और औपचारिकताएँ वहाँ गौण हो जाती हैं, महान् योगी आनन्दघन के साथ ऐसा ही घटित हुआ। वे वनों पर्वतों, अन्यान्य एकान्त स्थानों में जाकर साधना-निरत रहते, ध्यानस्थ रहते, संयम तो उनके जीवन के कण-कण में व्याप्त था ही। वे जैन दर्शन-न्याय आदि के प्रसिद्ध विद्वान् यशोविजय के सम-सामयिक थे। दोनों की अवस्था में थोड़ा सा अन्तर था। उपाध्याय यशोविजय इनके साधनानिष्ठ जीवन से बड़े प्रभावित थे। यशोविजय ने महान् योगी आनन्दघन की स्तुति में एक comwwwwwwwwwwww. 17 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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