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________________ खण्ड : अष्टम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम ध्येय और ध्यान ये तीनों जहाँ एकता प्राप्त कर लेते हैं तो संयमी साधक का चित्त अन्यत्र कहीं नहीं जाता। उसे किसी प्रकार का दुःख या क्लेश नहीं होता। अन्तरात्मा ध्याता है। परमात्मा को ध्येय कहा गया है। एकाग्रता पूर्वक संविति-चिन्तन ध्यान है। इनकी एकता समापत्ति या समाधि है। जिस प्रकार मणि में किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब या प्रतिच्छाया व्यक्त होती है, उसी प्रकार आत्मा में परमात्मा की प्रतिच्छाया समाधि है। जब ध्यान से चित्तवत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं, अन्तरात्मा निर्मल हो जाती है तब समाधि की स्थिति घटित होती है। वैसा होने पर पवित्र तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध होता है अर्थात् भावी जीवन में वे साधक तीर्थंकर का पद पाते हैं। आत्मा की निर्मलता की ओर जब साधक अभिमुख रहता है तो क्रमश: वह ऊर्ध्वगामी बनता जाता है, जो अभव्यजनों के लिए होना सर्वथा दुर्लभ है। उनके योगोपक्रम केवल कष्टमात्र होते हैं। जो योगी अपनी इन्द्रियों को जीत चुका हो, धीर आत्मबली हो, प्रशान्त और सुस्थिर हो, सुखासनलीन जिसकी दृष्टि नासाग्र पर लगी हो, जिसने बाह्य मनोवृत्ति का निरोध कर लिया हो उसकी धारणा की धारा ध्यान के रूप में परिणत होती हुई निष्पन्नता प्राप्त कर लेती है, वैसा ध्यानयोगी चिदानन्दमय आध्यात्मिक सुधा का आस्वाद लेता है। निर्बाध निर्विघ्न आत्मसाम्राज्य को वह प्राप्त कर लेता है। इस लोक में न तो देवताओं में और न ही मानवों में ध्यानी साधकों की उपमा प्राप्त होती है। वह निरुपमता स्वायत्त कर लेता है।29 __'ध्यानाष्टक' में ध्यान और तद्जन्य आध्यात्मिक उपलब्धि का उपाध्याय यशोविजय ने संक्षेप में जो दिग्दर्शन कराया है उसका एक-एक शब्द अध्यात्म-पुंज है। उपाध्यायश्री के अनुसार ध्यान ही वह विलक्षण साधना है जिसको साधने वाला साधक तीर्थंकर के सर्वोत्कृष्ट पद को प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है। इस लोक में उससे उच्च अन्य कुछ नहीं है। अध्यात्मयोगी महान् साधक श्री आनन्दघन जी : जैन परम्परा के अध्यात्मयोगियों में महान् साधक श्री आनन्दघन जी का नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है। तीर्थंकरों की स्तवना के रूप में उनके द्वारा रचित 'आनन्दघन 29. ज्ञानसार 30.1-8 wwmmmmmmmmmmmmm 15 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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