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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
खण्ड : अष्टम
तदनन्तर उन्होंने ध्यान के लिंगों अर्थात् पहचान रूप चिह्नों का वर्णन किया है।
आर्त रौद्र ध्यान की हेयता का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा है- ये दोनों ध्यान अप्रशस्त हैं। इनका परिणाम बहुत ही दु:खद है। फिर भी ये चिर परिचित हैं, सहज ही मनुष्य की प्रवृत्ति इनकी ओर चली जाती है। इसलिए साधक अध्यवसाय या अभ्यास से प्रशस्त ध्यान के सोपान पर आरोहण करे। ध्यानयोगी देश, काल, आसन, आलम्बन, अनुक्रम, ध्यातव्य, ध्यानयोग्य केन्द्रबिन्दु, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग, फल आदि का ज्ञान प्राप्त कर इन्हें भलीभाँति समझने के पश्चात् धर्मध्यान में प्रवृत्त बने।
ध्यान के सन्दर्भ में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य नामक चार भावनाओं का कथन किया गया है। इन चारों भावनाओं के अभ्यास से क्रमश: निश्चलता एवं असम्मोह की प्रवृत्ति होती है, पूर्वार्जित कर्मों की निर्जरा होती है, संग-आसक्ति, आशंसा तथा भय का उच्छेद या नाश होता है। इस प्रसंग में श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय के 36,37,38 वें श्लोक को उद्धृत किया है जहाँ गीताकार ने मन की चंचलता, प्रमथनशीलता, बलवत्ता और दृढ़ता का वर्णन करते हुए उसे वश में कर पाना वैसा ही दुष्कर और दुर्गम बताया है जैसा वायु को नियंत्रित कर पाना। वह दुर्निवार, दुर्निग्रह मन अभ्यास और वैराग्य से ही वश में किया जा सकता है।
ग्रन्थकार ने आगे लिखा है कि साधक अपने मन को बाह्य अर्थ से अर्थात् आत्मेतर पदार्थों से निवृत्त करे। सांसारिक विषयों के प्रति वितृष्णा का भाव स्वीकार करने से उपर्युक्त भावनाओं द्वारा भावित आत्मा में वे बातें घटित होती हैं जो उसे निर्मल और शुद्ध बनाती हैं, ध्यान के योग्य पृष्ठभूमि प्रदान करती हैं।'
धर्मध्यान के लिए उपयुक्त स्थान का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है जहाँ योगों का अर्थात् मन-वचन-काय का समाधान हो, योगानुकूल स्थिति या वातावरण हो, वही समय और स्थान ध्यान के लिए अभीष्ट है। ध्यानयोगी के लिए दिन-रात आदि समयविशेष का कोई निर्धारण नहीं है। आसन के सम्बन्ध में इनका 4. वही, गा. 17
T. 18-20 6. वही, गा. 25
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