________________
खण्ड : अष्टम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आचार्य हरिभद्र सूरि रचित योगविंशिका, षोड़शक आदि पर भी टीकाओं की रचना की। वि.सं. 1743 में उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया। उपाध्याय यशोविजय ने योग का गहन एवं व्यापक अध्ययन किया था। यही कारण है कि उन्होंने जैनयोग को नई उद्भावना दी। उनके द्वारा रचित अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् एवं ज्ञानसार जैसी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ इसी का परिणाम हैं। एक महत्त्वपूर्ण उल्लेखनीय बात यह है कि उन्होंने महर्षि पतंजलि द्वारा रचित 'योगसूत्र' पर भी टीका लिखी। 'योगसूत्र' के कतिपय सूत्रों का उन्होंने जैन योग के साथ समन्वय करते हुए अपनी विलक्षण प्रतिभा और स्वानुभूति का परिचय दिया।
अध्यात्मसार:
अध्यात्मसार में ग्रन्थकार ने ध्यान के स्वरूप आदि का विवेचन किया है। उन्होंने ध्यान और भावना का अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है- स्थिर अध्यवसायस्थिर चित्त ध्यान है अर्थात् चित्त की स्थिरता, पूर्ण एकाग्रता ध्यान का लक्षण है। जो चित्त स्थिर नहीं होता, एक केन्द्रबिन्दु से दूसरे केन्द्रबिन्दु पर आता जाता रहता है वह भावना, अनुप्रेक्षा, या चिन्ता है, इसको और अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि एक आलम्बन पर अन्तर्मुहर्त पर्यन्त मन का स्थिर या एकाग्र रहना ध्यान है। उनके पदार्थों या आलम्बनों पर संक्रमण करते हुए जो अविच्छिन्न ध्यानात्मक स्थिति होती है, उसे ध्यानसंतति कहा जाता है।
तत्पश्चात् उन्होंने आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यानों तथा उनके भेदों का वर्णन किया है।
आर्तध्यान में कापोत, नील और कृष्ण लेश्याओं के होने का उल्लेख किया है। कापोत लेश्या के अन्तर्गत कम क्लिष्ट परिणाम होते हैं। नील लेश्या में कापोत लेश्या की अपेक्षा अधिक क्लिष्ट परिणाम होते हैं। कृष्ण लेश्या में नील लेश्या की अपेक्षा और अधिक क्लिष्ट परिणाम होते हैं।
1. 2. 3.
अध्यात्मसार गा. 1 वही, गा. 2 वही, गा. 6
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org