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________________ खण्ड : सप्तम 4. जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम है अतः अयोगित्व अर्थ के अनुसार अयोगी केवली में ध्यान का सद्भाव मानना उचित ही है। जिनेन्द्र भगवान के अयोगी केवली अवस्था में भी ध्यान कहा है। इस कारण उनमें ध्यान का सद्भाव मानना चाहिए । 111 शुक्ल ध्यान के स्वामी : चार प्रकार के शुक्ल ध्यानों में से पहले के दो ध्यान पूर्वगत श्रुत में प्रतिपादित अर्थका अनुसरण करने के कारण श्रुतावलम्बी हैं। वे प्रायः पूर्वों के ज्ञाता छद्मस्थ योगियों के ही होते हैं । 'प्रायश: ' कहने का आशय यह है कि कभी-कभी वे विशिष्ट अपूर्वधरों को भी हो जाते हैं । अन्तिम दो प्रकार के शुक्ल ध्यान समस्त दोषों का क्षय करने वाले अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी केवली में ही पाए जाते हैं । 112 शुक्लध्यान का क्रम : मतिमान पुरुष को श्रुत में से किसी एक अर्थ का अवलम्बन करके ध्यान आरम्भ करना चाहिए। उसके बाद उन्हें अर्थ से शब्द के विचार में आना चाहिए । फिर शब्द से अर्थ में पुन: लौटना चाहिए । इसी प्रकार एक योग से दूसरे योग में और फिर दूसरे योग से पहले योग में आना चाहिए । ध्यानकर्ता जिस प्रकार शीघ्रता पूर्वक अर्थ, शब्द और योग में संक्रमण करता है, उसी प्रकार शीघ्रता से उससे पुन: लौट भी आता है। Jain Education International इस प्रकार से योगी जब पृथक्त्व में तीक्ष्ण अभ्यास वाला हो जाता है, तब विशिष्ट आत्मिक गुणों के प्रकट होने पर उसमें एकत्व का ध्यान करने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है। 111. वही, 11.12 112. वही, 11.13, 14 49 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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