________________
आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
शुक्ल ध्यान में योग विभाग :
प्रथम शुक्ल ध्यान एक योग या तीनों योग युक्त मुनियों को होता है, दूसरा एक योग युक्त को ही होता है, तीसरा सूक्ष्म काययोग युक्त केवली को और चौथा अयोगी केवली को ही होता है।109
MARRESENCE
केवली और ध्यान :
सामान्यत: मन की स्थिरता को ध्यान कहते हैं, परन्तु तीसरे और चौथे शुक्ल ध्यान के समय, मन का अस्तित्व नहीं रहता है। ऐसी अवस्था में उन्हें ध्यान कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि "ध्यान के विशेषज्ञ पुरुष जैसे छद्मस्थ के मन की स्थिरता को ध्यान कहते हैं, उसी प्रकार केवली के काय की स्थिरता को भी ध्यान कहते हैं। क्योंकि जैसे मन एक प्रकार का योग है, उसी प्रकार काय भी एक प्रकार का योग है।"110
अयोगी और ध्यान :
चौदहवें गुणस्थान में पहुँचते ही आत्मा तीनों योगों का निरोध कर लेती है। अत: अयोगी अवस्था में स्थित केवली में योग का सद्भाव नहीं रहता है, फिर भी वहाँ ध्यान का अस्तित्व माना गया है। उसका कारण यह है कि : 1. जैसे कुम्हार का चक्र दण्ड आदि के अभाव में भी पूर्वाभ्यास से
घूमता रहता है, उसी प्रकार योगों के अभाव में भी पूर्वाभ्यास के कारण अयोगी अवस्था में भी ध्यान होता है। जैसे पुत्र न होने पर भी पुत्र के योग्य कार्य करने वाला व्यक्ति पुत्र कहलाता है, उसी प्रकार ध्यान का कार्य कर्म-निर्जरा वहाँ पर भी विद्यमान है अत: वहाँ ध्यान भी माना गया है। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ ध्येय धातु चिन्तन अर्थ में
है, काययोग के निरोध अर्थ में भी है और अयोगित्व अर्थ में भी 109. वही, 11.10 110. वही, 11.11 ~~~~~~~~~~~~~~~ 48 ~~~~~~~~~~~~~~~
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org