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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
स्तम्भन, विद्वेषण आदि उस योगी पर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते जो पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यासी है। शाकिनी, क्षुद्र योगिनी, पिशाच, मांस-भक्षी, दुष्ट जन वैसे योगी के तेज से तत्क्षण त्रस्त हो जाते हैं। उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते। दुष्ट हाथी, सिंह, सर्प, शरभ आदि घातक जन्तु उन्हें देखकर स्तब्ध हो जाते हैं, जहाँ के तहाँ खड़े रहते हैं, उसकी जरा भी हानि नहीं कर सकते।69
पिण्डस्थ ध्यान का मुख्य लक्ष्य तो कर्मक्षयपूर्वक शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि ही है, किन्तु भौतिक दृष्टि से भी इस ध्यान को साधने वाले योगी के सब प्रकार के भौतिक विघ्न भी नष्ट हो जाते हैं। ग्रन्थकार ने यह बतलाते हुए इसकी ऐहिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टियों से लाभकारिता सिद्ध की है।
'श्रेयांसि बहुविघ्नानि'-श्रेयस्कर कार्यों में अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं। आगम साहित्य में हम ऐसे प्रसंग देखते हैं जहाँ साधकों को विचलित करने के लिए क्रूर-कर्मा पिशाच आदि उपद्रव करते हैं। दृढ़चेता साधक विचलित नहीं होते किन्तु जिनकी साधना परिपक्वता या सुदृढ़ता को प्राप्त नहीं होती, वे स्थानच्युत हो जाते हैं।
उपासकदशांग सूत्र में महावीर के उपासकों के जीवन में ऐसे विपरीत विघ्न उपस्थित होते रहे हैं इसका विस्तार से वर्णन हुआ है।
पदस्थ ध्यान:
'विभक्त्यन्तं पदम्' व्याकरण के अनुसार विभक्ति युक्त शब्द को पद कहा जाता है। यहाँ पद शब्द का प्रयोग पवित्र मंत्राक्षर आदि को लक्षित कर किया गया है। उनका आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान कहा जाता है। सिद्धान्त के पारगामी महापुरुषों ने ऐसा बतलाया है।1
सिद्धान्त के पारगामी पुरुषों का उल्लेख कर आचार्य हेमचन्द्र ने पदस्थ ध्यान की प्राचीन परम्परा की ओर संकेत किया है। यह ध्यान भी पिण्डस्थ ध्यान की भाँति परम्परानुगत है। ग्रन्थकार ने विशेष रूप से उसे व्यक्त करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने 69. वही, 7.26-28 70. उपासक दशांगसूत्र अध्ययन 2.5 71. योगशास्त्र श्लोक 8.1 ~~~~~~~~~~~~~~~ 36 ~~~~~~~~~~~~~~~
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