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________________ खण्ड: सप्तम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम का जल तत्त्व से सम्बन्ध है। वह ऐसे आकाश का चिन्तन करे, जो अमृतसदृश जल बरसाने वाली मेघमालाओं से व्याप्त है। तदनन्तर वह मेघों के मध्य अर्ध चन्द्राकार कला बिन्दु युक्त वरुणबीज 'व' का चिन्तन करे। वरुण बीज वँ से निःसृत होते हुए सुधासदृश जल से गगनतल परिपूर्ण है। वैसे जल की अनवरत वृष्टि हो रही है। उससे पूर्वदग्ध देह तथा कर्मों की भस्म, जो प्रचण्ड वायु द्वारा उड़ा दी गई थी, प्रक्षालित होकर, धुलकर साफ हो रही है।67 इस धारणा द्वारा देह और कर्मों का भस्म रूप में बचा हुआ अवशेष भी नहीं रह पाता, ऐसा स्पष्ट है। उद्दीप्त ध्यान साधना द्वारा कर्मदाह का, विलय का एक सुन्दर मनोवैज्ञानिक उपक्रम व्यक्त होता है। तत्वभू धारणा: उपर्युक्त चार धारणायें पृथ्वी आदि भूत चतुष्ट्य पर अवस्थित हैं। पाँचवीं धारणा विशुद्ध आत्म-तत्त्व से सम्बद्ध है। इसलिए इसे तत्त्वभू कहा गया है अर्थात् यह आत्म तत्त्व की भूमिका पर विद्यमान है। साधक अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप का चिन्तन करे। वह यों सोचे कि यह आत्मतत्त्व देह रूपी रस, रक्त आदि सप्त धातुओं से सर्वथा रहित है। पूर्ण चन्द्र की ज्यों सर्वथा निर्मल, उज्ज्वल, कान्तिमय है, सर्वज्ञोपम है। तत्पश्चात् वह स्व-शरीरस्थ निराकार आत्मा का इस प्रकार स्मरण-चिन्तन करे कि वह भावमय सिंहासन पर आरूढ़ है, समस्त अतिशयों से विभूषित है और समस्त कर्मविध्वंसक उत्तम महिमायुक्त है। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान का जो योगी अभ्यास करता है, वह शिवसुख मोक्षरूप अनन्त सुख को प्राप्त करता है।68 पिण्डस्थ ध्यान का माहात्म्य : __ अन्त में, ग्रन्थकार ने पिण्डस्थ ध्यान से नष्ट हो जाने वाले बाह्य विघ्नों की चर्चा करते हुए लिखा है कि दूषित विद्या या मन्त्रशक्ति द्वारा उत्पादित, उच्चाटन, मारण, 67. वही, 7.21-22 68. वही, 7.23-25 ~~~~~~~~~~~~~~- 35 ~~~~~ ~~~~~~ ~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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