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________________ आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम कि देह के भीतर महामंत्र के ध्यान से उत्पन्न ज्वालायें देह को तथा अष्ट कर्म युक्त कमल को तत्काल भस्म कर देती हैं, ऐसा कर अग्निज्वालायें सर्वथा शान्त हो जाती हैं।65 ध्यान द्वारा कर्मावरणों को भस्मसात करने का यह एक बड़ा ही रोचक और प्रभावक क्रम है। कर्मक्षय के उपक्रम से जुड़ी हुई ये अनुचिन्तनायें वास्तव में चित्तवृत्ति को अपने में इतना रमा लेती हैं कि वह दूसरी ओर भटक ही नहीं सकती। कर्मनिर्जरण का यह एक ध्यानमूलक तपोमय विधिक्रम है जो ग्रन्थकार ने इस धारणा के माध्यम से उपस्थापित किया है। वायवी धारणा : कर्मदाह या कर्मक्षय के पथ पर आरूढ़ ध्यानयोगी आग्नेयी धारणा के बाद अपनी कल्पना को एक अन्य दिशा में उन्मुख बनाये। वह ऐसा सोचे कि एक प्रचण्ड पवन या घोर तूफान आ रहा है जो तीनों लोकों में व्याप्त हो रहा है, पर्वतों को विचलित कर रहा है और समुद्रों को संक्षुब्ध कर रहा है। पुन: वह चिन्तन करे कि आग्नेयी धारणा में शरीर और अष्टकर्मों को दग्ध कर डालने से जो राख के रूप में उनकी परिणति हुई थी, उस राख को यह तूफान, यह प्रचण्ड वायु उड़ाता जा रहा है और सर्वत्र विकीर्ण कर रहा है अर्थात् वह राख भी पुञ्ज रूप में विद्यमान नहीं रही है। तूफान द्वारा उड़ाये जाने पर वह लोक में सर्वत्र बिखर गई है। इसे वायवी धारणा कहा जाता है। ___ "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" के आदर्श को लेकर चलने वाला ध्यानयोगी अपने मन में यह भाव लिये रहता है कि उसके दग्ध कर्मों का भी कोई अवशेष बचा न रहे। इस धारणा से इस आशय का अंकन किया गया है। वारुणी धारणा: वायवी धारणा को सिद्ध कर साधक वारुणी धारणा पर आता है। इस धारणा 65. वही, 7.13-18 66. योगशास्त्र श्लोक 7.19-20 ~~~~~~~~~~~~~~~ 34 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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