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खण्ड : सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
के मध्यवर्ती किञ्जलकों के भीतर देदीप्यमान पीत प्रभामय मेरुपर्वत के समकक्ष एक लक्ष योजन ऊँची कर्णिका अवस्थित है, ऐसा विचार करें। उस कर्णिका के ऊपर एक उज्ज्वल निर्मल सिंहासन है। यों सोचें कि उस सिंहासन पर आसीन होकर मैं, मेरी आत्मा कर्मों का मूलोच्छेद करने में सन्नद्ध है। चिंतन की यह विधा अर्थात् प्रक्रिया पार्थिवी धारणा है।64
यह पृथ्वी को आधार मानकर की गई है। यह चिन्तनानुचिन्तन मूलक विधि ध्याता के ध्यान को अन्य दिशाओं से हटाकर एक ही पृथ्वी पिण्डगत परिकल्पित वस्तु तत्त्व पर टिकती है। यह एकाग्रता का एक बड़ा ही सुन्दर उपयोगी रूप है।
आग्नेयी धारणा :
एक अन्य विधा को लेकर साधक की परिकल्पना आगे बढ़ती है। वह यह चिन्तन करे कि उसकी नाभि के भीतर षोड़शदल युक्त कमल विद्यमान है। उस कमल की प्रत्येक कर्णिका पर महामंत्र नवकार का संक्षिप्त रूप ‘अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ,ल, ~ , ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:'- ये सोलह स्वर स्थापित करें। तदनन्तर अपने हृदय स्थल में अष्ट दल युक्त एक अन्य कमल का चिन्तन करें। उसके प्रत्येक पत्र पर क्रमश: ज्ञानावरण दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्मों को प्रतिष्ठपित करें-परिकल्पना करें कि उन पत्रों पर क्रमश: ये आठ कर्म स्थित हैं। साथ-ही-साथ यह भी सोचें कि यह हृदय स्थित कमल अधोमुखी है।
तदनन्तर अपने चिन्तन को इस प्रकार आगे बढ़ायें कि नाभिवर्ती कमल पर विद्यमान अहँ पद के हैं के अन्तर्वर्ती रेफ में से मन्द-मन्द रूप में धूम-शिखा निकल रही है। पुन: यों चिन्तन करें कि उसमें से अग्नि स्फुलिंग निकलने लगे हैं। आगे वे स्फुलिंग ज्वालाओं के रूप में परिणत हो रहे हैं, ज्वालाएँ उत्तरोत्तर ऊँची बढ़ती जा रही हैं और पूर्वोक्त हृदयवर्ती अष्टदल युक्त कमल को दग्ध कर रही हैं।
उसके पश्चात् देह के बाहर एक त्रिकोण स्वस्तिक युक्त तथा अग्निबीज रेफ युक्त प्रज्वलित वह्निपुर-अग्निमय घर या आवास का चिन्तन करें। आगे फिर यों सोचें 64. वही, 7.10-12 ~~~~~~~~~~~~~~~ 33 ~~~~~~~~~~~~~~~
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