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________________ खण्ड : सप्तम 60 करना है, वह वस्तु कैसी होनी चाहिए ! ध्यान- ध्यान के कारणों की समग्रता अर्थात् सामग्री कैसी हो क्योंकि सामग्री के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता । " इनके संदर्भ में आत्मलीनता, चित्त की स्वस्थता, यतना, जागरूकता, एकान्तवास और मौन रहने का अभ्यास भी आवश्यक है क्योंकि ये सब उपकरण हैं जो ध्यानसिद्धि में सहायक बनते हैं। ध्यान के अधिकारी का विवेचन करतेहुए ग्रन्थकार ने बतलाया है कि जो प्राणनाश की स्थिति उत्पन हो जाने पर भी संयम की धुरी के भार का त्याग नहीं करता, अन्यान्य सभी प्राणियों को आत्मवत् देखता है, जो अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होता, अपने लक्ष्य पर अडिग रहता है, जो शैत्य, उष्मा, पवन आदि से जनित प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कभी खिन्न नहीं होता; जो अजरत्व, अमरत्व प्रदायक योगामृत रूप रसायन का पान करने में सदा इच्छुक बना रहता है, जो राग-द्वेष, मोह आदि काम-‍ अभिभूत नहीं होता; क्रोध, मान आदि कषायों से दूषित नहीं होता, जो आत्मस्वरूप में अपने मन को रमाये रखता है, लौकिक कार्य करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं रहता, -भोगों से विरत रहता है, अपने देह के प्रति भी जिसमें स्पृहा नहीं होती, जो संवेदात्मक सरोवर में सम्यक् निमग्न रहता है, शत्रु-मित्र, स्वर्ण - पाषाण, निन्दा - स्तुति, मान-अपमान आदि में सर्वदा समभाव लिये रहता है, राजा और रंक सभी के प्रति कल्याणमयी भावना अपने मन में रखता है, समस्त जीवों के प्रति जिसके हृदय में कारुण्य विद्यमान होता है, सांसारिक भोगमय सुखों से जिसमें वैमुख्य बना रहता है, परिषहों तथा उपसर्ग के आने पर भी सुमेरु पर्वत ज्यों अप्रकम्पित रहता है, जो सबके लिए चन्द्रवत् आनन्दप्रद है, वायु की ज्यों, जो निर्लेप, अनासक्त बना रहता है, ऐसा प्रशस्त बुद्धियुक्तध्याता ध्यान साधना करने के योग्य है। 6: 61 जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम ~~ का स्वरूप : 'ध्यातुं योग्यं ध्येयम्' जो ध्यान किये जाने योग्य हो या जिस पर ध्यान किया जाय उसे ध्येय कहा जाता है। ध्याता, ध्येय, ध्यान इन तीनों का अन्योन्याश्रित संबंध है। ध्येय को आलम्बन भी कहा जाता है । 'ध्यायते येन तद् ध्यानम्' - जिसके द्वारा किसी विषय पर मन को टिकाया जाता है, उसे ध्यान कहा जाता है, 'ध्यायति 60. वही, 7.1 61. वही, 7.1-7 Jain Education International 31 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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