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________________ आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम मन को बाह्य एवं अभ्यन्तर इन्द्रियों से अलग कर देना ही प्रत्याहार कहा गया है। धारणा: नाभि, हृदय, नासिका का अग्रभाग, कपाल, भृकुटि, तालु, नेत्र, मुख, कान और मस्तक ये ध्यान करने के लिए धारणा के स्थान हैं अर्थात् इन स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर चित्त को स्थिर करना चाहिए। चित्त को स्थिर करना ही धारणा है।58 ध्यान के लिए वचन और काय के साथ मन को एकाग्र करना अनिवार्य है अत: ध्यान-आत्मचिन्तन करते समय यह आवश्यक है कि मन को एक पदार्थ के चिन्तन में स्थिर किया जाए। वस्तुत: ध्यान मन को एक स्थान पर एकाग्र करने, रखने की साधना है। धारणा का फल : उपर्युक्त स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर लम्बे समय तक मन को स्थापित करने से निश्चय ही स्वसंवेदन के अनेक प्रयास उत्पन्न होते हैं। इन्द्रियों को और मन को विषयों से खींच लेने के पश्चात् धारणा होती है। विषयविमुख मन को नासिकाग्र आदि स्थानों पर सीमित करने पर कुछ ऐसा साक्षात्कार होने लगता है, जो पहले कभी अनुभव में न आया हो। किन्तु उन्हें भी इन्द्रियों के सूक्ष्म विषय मानकर मन से बहिष्कृत करने पर अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है। इस प्रकार बाह्य और आन्तरिक विषयों से विरक्त मन में ही धारणा की योग्यता आती है। धारणा की योग्यता प्राप्त हो जाने पर यथार्थ ध्यान सध सकता है। EETari . ध्यान का अधिकारी: आचार्य हेमचन्द्र ने ध्यान साधना के अधिकारी के संबंध में लिखा है कि जो ध्यान साधना करना चाहता है, उसे ध्याता, ध्येय तथा उसके फल को भी जानना चाहिए। ध्याता-ध्यान करने वाले में कैसी योग्यता होनी चाहिए? ध्येय-जिसका ध्यान 58. वही, 6.7 59. वही, 6.8 ~~~~~~~~~~~~~~~ 30 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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